Thursday 5 January 2017

लोकमान्य तिलक का आर्क्टिक होम इन दे वेदाज - एक समीक्षात्मक अध्ययन



यस्य नि:श्वसितं वेदा: यो वेदोभ्योsखिलं जगत् ! 
निर्ममे तमहं वन्दे विद्यातीर्थम् महेश्वरम् !
सायणभाष्य - ऋग्वेद

वेद जो परमात्मा का नि:श्वास है एवं जिससे उस परमात्माने इस पूरे विश्व का निर्माण किया,उस परमात्मा को हम प्रणाम करते है ! 

हिॅदुओंको अर्थात हम भारतीयोंको वेदोंके प्रति अपार आस्था है । और इसी आस्था के कारण हम सब इस वेदको हमारे धर्मका मूल मानते है । "कृण्वन्तो विश्वमार्यम्" अर्थात पूरे विश्व को आर्य अर्थात सुसंस्कृत, ज्ञानी करना यह वेद की वाणी है । यह आर्य शब्द किसी ज्ञाती या वंश का वाचक नही है अपितु यह संस्कार, सभ्यता एवं विचार का प्रतीक है । यह श्रेष्ठतम मानवमूल्योंके प्रति निष्ठा का प्रतीक है । ब्रिटीशोंने हिन्दुस्तान पर राज्य करना आरंभ किया तो भारतको सदैव के लिए परदास्यता की शृंखलाओंमें बाध्य करनेहेतु उन्होने भारत के इतिहास के साथ हेतूपूर्वक विपर्यास करके विकृत इतिहास लेखन करना आरंभ कर दिया । उन्होने हमे केवल राजनैतिक रुपसे दास बनाने का प्रयत्न किया ऐसा नहीं अपितु मानसिक अर्थात विचाररुपसे भीं दासता को आरोपित करनें का यशस्वी प्रयत्न किया । विशेष रुपसे यह इसिहास लेखन अठरहवीं, उन्नीसवीं एवं बीसवीं शताब्दीके आरंभमें ब्रिटीश इतिहासकारोंके हस्तों हुआ। इस इतिहास लेखन में उन्होनें भारतीय इतिहास के उपर लांच्छनास्पद आरोप लगाकर मिथ्या एवं असत्य धारणाएँ प्रसृत की । उन्हीमेंसे एक है आर्याक्रमण सिद्धांत अर्थात प्राचीन आर्य जो हमारे पूर्वज थे, वे बाहर से आये और इस देश में बसे । आर्य शब्दका इतना असत्य अर्थ आज प्रतिपादन किया जाता है की वह वाचनीय ही नही । वास्तम में यह आर्याक्रमण नामके सिद्धांत को ना तो वेदोंमें या अन्य ग्रन्थोंमें कोई आधार है और नाही कोई पुरातत्व शास्त्र जैसे वैज्ञानिक आधार । आजभी दुर्भाग्य से यह भ्रमित इतिहास हमारे पाठ्यपुस्तकोमेंभी अध्ययन किया जाता है यह खेदका विषय है । 

इस लेख में हम लोकमान्य तिलक महोदय, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महान अध्वर्यु थे, जिन्हे "भारतीय असंतोष का जनक" भी माना जाता है, जो स्वयं वेदोंके प्रति अत्यंत आस्था रखनेवाले थे, उनके इस आर्याक्रमण सिद्धांतपर किये गये विचारोंका चिंतन करेंगे । उन्होने वेदोंका अध्ययन कुछ संक्षेपसा करके प्राचीन आर्योंके इतिहास का चिंतन अपने "आर्क्टिक होम इन द वेदाज" एवं "ओरायन अर्थात वेदोंकी प्राचीनता" नामक दो ग्रंथोंमे ग्रंथबद्ध किया था । १८९३ में "ओरायन" ग्रंथ में उन्होनें वेदोंका काल ज्योतिष के आधार पर निश्चित करनेंका प्रयत्न किया और उसके पाच वर्ष पश्चात "आर्क्टिक होम ईन दे वेदाज" इस ग्रंथ में उन्होनें प्राचीन आर्योंका मूलस्थान निश्चित करनेंका प्रयत्न किया । पाश्चिमात्योंने आर्य ईराण या मध्यपूर्व एशिया से यहाँपर आये ऐसा प्रचार किया और उसे उत्तर देने हेतु तिलक महोदयने आर्य उत्तरध्रूवनिवासी थे यह सिद्धांत इस ग्रंथसे प्रस्थापित किया । केंब्रिज हिस्टरी ऑफ इण्डिया नामक ग्रंथ में प्रथम यह सिद्धांत प्रस्थापित किया गया । इस लेख में आज हम उनके इस सिद्धांत का भी चिकीत्सात्मक अध्ययन कर उसकी समीक्षा करेंगे । 

मॅक्सम्युलरका विकृत हेतु उसके पत्रोंद्वारा प्रकाशित ! 

पाश्चिमात्योंको भारतीय धर्मग्रंथों अर्थात वेद एवं अन्य ग्रंथोंके अध्ययन के प्रति इतनी आस्था क्यौं थी इसका उत्तर यहाँ हमें प्राप्त हो सकता है ! मॅक्सम्युलर नामका मूल जर्मन व्यक्ती जिसे इतिहास में एक संस्कृत विद्वान नामक स्थान अकारण प्राप्त है, उसे ईस्ट इण्डिया कम्पनीने भारत को ख्रिस्तानुसरण की मार्ग पर लाने का प्रयत्न करने हेतु हिॅदु धर्मग्रंथोंका अनुवाद करनेंका कार्य सोपा । उसने लगभग छत्तीस वर्ष वेदोंका अध्ययन कर उसका अनुवाद किया एवं उसे "सैक्रिड बुक्स आॅफ दि ईस्ट" नामसे पचास खण्डो में प्रकाशित किया । अब ये सर्व करने के पश्चात यदि हम उसका व्यक्तिगत पत्रव्यवहार का अभ्यास करेंगे तो हमें निम्नलिखित तथ्यों पर ध्यान देना होगा ! अपनी पत्नी को लिखते हुए वह कहता है

In a letter of 1866 A.D. (V. Sam. 1923) he writes to hiswife ;
"I feel convinced, although I shall not live to see it, that this edition of mine and the translation of the Veda will hereafter tell to a great extent on the fate of India, and on the growth of millions of souls in that country.  It is the root of their religion and to show them what the root is, I feel sure, is the only way of uprooting all that has sprung from it during the last three thousand years." (Vol. I, Ch. XV, page 346) 

"अर्थात मुझे आशा है कि मै यह कार्य सम्पूर्ण करूंगा और मुझे पूर्ण विश्वास है ,यद्यपि मै उसे देखने को जीवित न रहूँगातथापि मेरा यह संस्करण वेद का आद्यन्त अनुवाद बहुत हद तक भारत के भाग्य पर और उस देश की लाखो आत्माओ के विकास पर प्रभाव डालेगा वेद इनके धर्म का मूल है और मुझे विश्वास है कि इनको यह दिखना कि वह मूल क्या है -उस धर्म को नष्ट करने का एक मात्र उपाय है ,जो गत ३००० वर्षो से उससे (वेद ) उत्त्पन्न हुआ है |

इन सबसे विदेशियों का उद्देश हम समझ सकते है |इससे उसके वेदानुवाद ओर उस बृहत्कार्य का हेतुभी हमें स्पष्ट होता है । और एक प्रमाण द्रष्टव्य है । एर्जिल के ड्युक अर्थात ख्रिस्ती धर्मगुरु, जो भारत का तत्कालीन मंत्री था, उसे लिखते समय वह कहता है 

On 16th December 1868 A.D. (Sam. 1925) he writes to Duke of Argyl, the Secretary of State for India :
"The ancient religion of India is doomed and if Christianity does not step in, whose fault will it be ?" (Vol. I, Ch. XVI, page 378) 

"अर्थात भारत के प्राचीन धर्म का पतन हो गया है यदि अब भी इसाई धर्म नही प्रचलित होता है तो इसमें किसका दोष है ?"

२५ अगस्त, १८५६ को वह चेव्हलियर बन्सन को लिखे पत्र में कहता है 

"India is much riper for christianity than Rome or Greece were at the time of St. Paul.... For the good of this struggle I should like to lay down my life, or at least to lend my hand to bring about this struggle.... I should like to live for ten years quietly and learn the language, try to make friends, and then see whether I was fit to take part in a work, by means of which the old mischief of Indian Priest-craft could be overthrown and the way opened for the entrance of simple Christian teaching.... Whatever finds root in India soon overshadows the whole Asia."
Max-muller's letter to Chevalier Bunsen dated 25th Aug., 1856.(Oxford)

''आज भारत ईसाईयत के लिए उससे कहीं ज्यादा उपयुक्त है जितने कि सेंट पॉल के समय में रोम या ग्रीस थे। इस गले-सड़े वृक्ष के पास कुछ समय के लिए बनावटी सहारा था इस संघर्ष की सफलता के लिएमैं अपना जीवन बलिदान करना चाहूँगा अथवा कम से कम उस संघर्ष को प्रारंभ करने के लिए मैं अपना पूरा सहयोग दे सकु। मैं वहाँ शान्ति से दस वर्ष रहकर भाषा (संस्कृत) सीखना एवं नए मित्र बनाना चाहता हूँ और उसके बाद देखूँगा कि मैं यह कार्य (वेद भाष्य) करने के योग्य हूँ भी कि नहीं जिसके द्वारा भारतीय पुरोहितों के दुष्कृत्यों को उखाड़ फेंका जाए और फिर ईसाईयत की सीधी-सादी व सरल शिक्षाओं का द्वार खोला जा सके। भारत में जो कुछ भी विचार जन्म लेता है शीघ्र ही वह सारे एशिया में फैल जाता है ! "

आगे वह कहता है

"I have myself the strongest belief in the growth of Christianity in India. There is no other country so ripe for Christianity as India."
"अर्थात भारत में ख्रिस्ती पंथप्रचार की वृद्धी में मुझे स्वयं दृढ विश्वास है । भारत जैसा ख्रिस्तानुकुल देश दुनियामें कहींपर नही है ।"

मोनियर विल्यम्स नामका एक विद्वान जिसने संस्कृत-आंग्ल एवं आंग्ल-संस्कृत शब्दकोष की निर्मिती कियी थी, वो स्वयं लिखता है

'१८६० मेंबोडेन चेयर के लिए चुने जाने के बाद अपनी पुस्तक ''दी स्टडी ऑफ संस्कृत इन रिलेशन टू मिशनरी वर्क इन इंडिया'' (१८६१)'' इसमें उसने एक मिशनरी की तरह स्पष्ट कहाः

"When the walls of the mighty fortress of Hinduism are encircled, undermined and finally stormed by the soldiers of the Cross, the victory to Christianity must be signal and complete."
 (p.262)
अर्थात्‌ ''जब हिन्दू धर्म के मजबूत किलों की दीवारों को घेरा जाएगाउन पर सुरंगे बिछाई जाऐंगी और अंत में ईसामसीह के सैनिकों द्वारा उन पर धावा बोला जाएगा तो ईसाईयत की विजय अन्तिम और पूरी तरह होगी''


अब इससे अधिक प्रमाणोंकी क्या आवश्यकता है यह सिद्ध करने हेतु की ख्रिस्ती पंथ का प्रचारही उसके इस सर्व कार्य का मूल हेतु था । दुर्भाग्य यह भी है वह संस्कृत का ज्ञानी भी नही था । उसने स्वयं यह कथन किया है की वह संस्कृतमें संवाद करनेमें असमर्थ था । अब विचारणीय वस्तु यह है की लोकमान्य तिलक महोदय उसके इस कार्यसे बडे प्रभावित थे । इतनाही नही स्वामी विवेकानंद जैसे युगपुरुषभी, जो स्वयं वेदोंके ज्ञानी थे, उसके इस कार्यसेभी अतिप्रसन्न हुए थे । केवल महर्षी दयानंद का अपवाद छोडे तो किसीनेभी उसके कार्यकी आलोचना उस समय तो नहीं की थी । और इस सबका कारण यहभी हो सकता है की उसका यह पत्रव्यवहार गुप्त रखा गया था उसके अंत के दो वर्ष तक अर्थात ईसा की १९०२ वर्ष तक । किंतु सौभाग्य का विषय तो यह है केवल महर्षी दयानंद ही थे जो उसके मूलहेतु को जान गये थे बिना यह पत्रव्यवहार पढें । यही तो उनकी विशेषता थी । इसी कारण तो उन्हें वेदोद्धारक भी यथार्थरुपसे घोषित किया जाता है । उनका सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं उनके वेदभाष्योंको हम पढे तो उसमें उन्होनें इन पाश्चिमात्य पण्डितोंकी एवं सायण, महीधरादि एतद्देशीय वेदभाष्यकारोंकीभी कितनी आलोचना सप्रमाण एवं साधार कियीं थी यह इस विषय के संदर्भ मेंभी द्रष्टव्य है किंतु विस्तारभयसे यहाँपर उसपर कुछ लिखना संभव नही है । 

इससे तो यह स्पष्ट हो जाता है की पाश्चिमात्योंने किया वेदभाष्य अथवा हिंदुधर्मग्रंथोंका अर्थ यह सर्वथा विकृतही था एवं उसका मूल हेतु हिंदु धर्म की निंदा करके भारत में ख्रिस्तीपंथ का प्रचार यही था । किॅतु दुर्भाग्य से हमारे इस राष्ट्र के विद्वान लोग आजभी इस तथ्य को स्वीकार करते नही दिखाई पडते । अब हम लोकमान्य के सिद्धांत की समीक्षा करतें है । 



लोकमान्य का सिद्धांत

लोकमान्य तिलक स्वयं एक प्रज्ञावान एवं प्रतिभाशाली व्यक्ती थे । वे स्वयं गणित एवं ज्योतिष के विद्वान थे । लोकमान्य तिलकने उनके "आर्क्टिक होम इन दे वेदाज" नामक ग्रंथमें आर्योंका मूलनिवास उत्तर ध्रूवपर था यह सिद्धांत प्रकट किया । इसका आधार देते समय उन्होंने ऋग्वेदकीही कतिपय ऋचाओंका एवं ब्राह्मणग्रंथोंका एवं तैत्तिरीय संहिता नामक अन्य ग्रंथोंका संदर्भ देकर यह मन्तन्य प्रकट किया की ऋग्वेद में "दीर्घतमा" नामक सुक्त है जिसका अर्थ दीर्घकालीन रात अर्थात उत्तरध्रुवपर छ: महीनोंकीही रात्री का समय एवं उतनाही दिन की समय होता है यह गृहित मान्य कर उन्होनें यह सिद्धांत प्रमाणित किया की जिस कारण ऋग्वेद में यह दीर्घ रात्री का उल्लेख है उससे यह सिद्ध है की प्राचीन आर्य उत्तरध्रुव के निवासी थे । किंतु दुर्भाग्यसे यदि हम लोकमान्यजींके इस सिद्धांत का अध्ययन करेंगें तो यह ध्यान आता है की इस ग्रंथ मैं उन्होंने मॅक्सम्युलरका नाम ९६ बार लिया है । मैं पुन:एकवार कहता हुँ की ९६ बार मॅक्सम्युलर का उल्लेख इस ग्रंथ में है । इससेही स्पष्ट होता है की उनके उपर मॅक्सम्युलरका कितना प्रभाव था । यद्यपि उन्होंने कतिपय जगोंपर मॅक्यम्युलरका प्रतिवादभी किया है अर्थात उसके मतोंकी आलोचना भी की है तथापि उसके प्रभाव को नकारना अप्रस्तुतही होगा । और उन्होंने स्वयं यह मान्यभी किया है । लोकमान्यने "आर्क्टिक" यह ग्रंथ वारन नामक पाश्चात्य विद्वान  के "Paradise found in the North Pole" ग्रंथ के पश्चातही लिखा है । इस ग्रंथ में उस लेखक नें मनुष्यजाति उत्तरध्रुव मेंही उत्पन्न हुई ऐसा लिखा है । 

समग्र तिलक वांग्मय खंड ६(मराठी)

तिलकजीका समग्र वांग्मय पुणे में उनकेंही स्थापित केसरी प्रकाशनने प्रकाशित किया है और वह आठ खण्डों में आज उपलब्ध है । मराठी मैं छ: खण्ड है और निम्न दो आंग्लभाषामें । उसी खंड ६ में वे स्वयं मॅक्सम्युलरके प्रभाव का स्वीकार करते है ! १८९८ में लोकमान्य तिलक जिस वक्त कारावास में थे वही उन्होंने ऋग्वेदका अध्ययन किया था और उस कारावास से छुटने के पश्चात उन्होंने एक वृत्तपत्र के संवाददाता के साथ किये गये संवाद का पूर्ण विवरण इस संदर्भ में उपलब्ध है ! पृष्ठ क्रमांक १०७ पर (मराठी) में वह कहते है जिसका हिंदी अनुवाद है 

"हमनें बहुधा ऋग्वेदकाही अध्ययन किया जिसपर टीकाओंकी (भाष्योंकी) सहाय्यती थीं । उससे हमनें यह निष्कर्ष निकाला कीं आर्यों के पूर्वज जिस जगह "दो महिने की रात थी" ऐसी जगहपर अर्थात उत्तर ध्रूव के समीप रहते थे । परंतु वे धीरे धीरे दक्षिण की और आने लगें । मेंरे सिद्धांत को भूशास्त्रवेत्ताओंका समर्थन प्राप्त है । किॅतु मुझे आवश्यक ग्रंथोंकी प्राप्ती नहीं हुई थीं जिनको देखना आवश्यक है । हो सकता है उनको अध्ययन करके मेरा मन्तव्य बदल भी सकता है ।"

अब इससे तो स्पष्ट है की उन्होंने केवल ऋग्वेदकाही अध्ययन किया था और न तो अन्य शेष तीन वेदोंका । अपितु वह अध्ययन केवल पाश्चिमात्य अनुवादकोंकाही था यह भी इससे स्पष्ट है । यद्यपि वे स्वयं संस्कृत के विद्वान थे, अपितु वे स्वयं अपने सिद्धांत पर अडिग नही है यह वे स्वयं मान्य करते हैं । मेरें विचार में अधिक अध्ययन करने के पश्चात परिवर्तन हो सकता है यह वे स्वयं मान्य कर रहे है । 

इतनाही नहीं अपितु लोकमान्य स्वयं अपने "ओरायन" ग्रंथ मे वेदोंका किया गया कालनिर्धारण उनके आगे आनेवाले "आर्क्टिक होम" में खंडित करते है स्वयं । इसका प्रमाण ऐसा है की वे ओरायन में वेदोंका काल ईसापूर्व ४,००० करते हैं । किन्तु "आर्क्टिक होम" में वे स्वयं कहते है की

"ऋग्वेंद में कह गये प्राचीन सूक्त, ऋषि और देवता सभी हिमपूर्वकाल के है, हिमोत्तर काल के नही."

 अब यह तो सर्वमान्य है की हिमपूर्वकाल आज से कम से कम दस सहस्त्र(१०,०००) वर्षोंका है । और लोकमान्य ओरायन में वेदोंका काल तो ईसापूर्व ४,००० का निश्चित करते है । इसका अर्थ यही है की ओरायन के पश्चात "आर्क्टिक होम" लिखते समय तिलक का मत बदल गया था । 

वेदोंकी अपौरुषेयता एवं उनका कालनिर्णय

हम हिॅदु लोग वेदोंको अपौरुषेय मानते है अर्थात वेदोंका कोई मनुष्य निर्माता नही है । वे साक्षात् उस परमात्मा की वाणी है ऐसा सिद्धांत हम मानते है । अब कोई प्रश्न उठा सकता है की कोई भी ग्रंथ अपौरुषेय कैसे सिद्ध हो सकता है? किन्तु वेदोंसे हम किसी ग्रंथ का निर्देश नही करते है ! वेदोंको तो हम उस परमात्मा की ईश्वरीय वाणी जो जगत्कल्याण के हेतु प्रसारित हुयी है एवं जिसमें विश्व का सर्व ज्ञान छुपा है यह मानते हैं । यद्यपि यह कथन पाठकों को भ्रान्तिपूर्ण एवं हास्यास्पद लगें फिरभी हमारी यह श्रद्धा है एवं इसे सिद्ध करनें के लिए हम स्वतंत्र प्रमाणों को देंकर लिख सकते है किन्तु विस्तारभय सें यह यहा संभव नही है । स्वामी विवेकानन्द स्वयं वेदोंको अपौरुषेय मानते थे । अमरिका में शिकागों की धर्मपरिषद में दिये गये अपने चतुर्थ व्याख्यान में, जो "हिन्दुत्व का निबंध" नामसे प्रख्यात है, उसमें वे कहते है

"हिन्दु जाति ने अपना धर्म श्रुति - वेदोंसे प्राप्त किया है । उनकी यह धारणा है की वेद अनादि और अनन्त है । श्रोताओं को, सम्भव है यह बात हास्यास्पद लगेगी की कोई ग्रंथ अनादि और अनंत कैसे हो सकता है । किन्तु वेदोंका अर्थ किसी ग्रंथ है ही नहीं ।"

इससे तो स्पष्ट है की वेदोंकी अपौरुषेयता स्वयं विवेकानंद तो मान्य करते थे एवं इसे उन्होंने अमरिका की उस शिकागो की धर्मपरिषद में उद्घोषित करनें मी भें वे चुकें नहीं थे । किन्तु लोकमान्य तिलक उनके ग्रंथोंमे यदि इस मान्यता का उल्लेख तो करते है तथापि इसे स्वीकारनेमें अपनी सहमती नहीं प्रकट करते दिखतें । इस संदर्भ में उनका एक संवाद द्रष्टव्य है । ईसा की १९०० में वे जब वाराणसी गये तो वहा स्थित एक विद्वान संन्यासी परमपुज्य दक्षिणामूर्ती स्वामी के साथ उन्होनें वेदोंके कालनिर्णय अर्थात कालनिर्धारण के संदर्भ में जो संवाद किया वह उसी उपरोक्त उल्लेखित खंड में उपलब्ध है । पृष्ठ क्रमांक ११२ से ११७ पर यह संवाद उपलब्ध है और विस्तारभय सें यहा हम उसका कुछ आवश्यक भागही प्रकट कर रहे है

लोकमान्य - वेदोंके कालनिर्णय के संबंध में आपका क्या अभिप्राय है? वेदोंका काल अर्थात वेदोंकी उत्पत्ती कब हुयीं? यद्यपि वह निश्चित नही है वा उसको निश्चित करना असंभव है, तथापि कितने वर्ष हुए उनकी उत्पत्ती होके?

प. पु. स्वामी दक्षिणामूर्ती - वेद तो अनादि एवं अपौरुषेय होने के कारण परमात्मा के स्थान पर विवर्तवाद की दृष्टीसें जगदाविर्भाव(निर्मिती) के सहित उनका आविर्भाव अर्थात प्रकटीकरण एवं जगत् के लय के साथ उनका लय यह स्थिती होनें के कारण उनके कालनिर्णय का प्रश्न ही नहीं उठता ।

लोकमान्य - वेदोंमे जिस अर्थ से वाक्यरचना है अर्थात वाक्योंका समुह है उससे तो उनकी रचना किसी ने किसी समय तो कीही होगी ऐसा किसी सामान्य मनुष्य को प्रतीत होता है और बहोतसें विद्वानोंका यही मन्तव्य है ।

प. पु. दक्षिणामूर्ती स्वामी - वे विद्वान कौन?

लोकमान्य - सांप्रतकालके सुशिक्षित लोग ।

प. पु. दक्षिणामूर्ती स्वामी - शास्त्रीय विचारों में सांप्रतकालकें सुशिक्षित लोगों के विद्वत्ता का क्या उपयोग? और यह विद्वान लोग अर्थात आंग्लविद्याविभूषितही ना?

लोकमान्य - हाँ वही । पर क्या यह आंग्ल विद्याविभूषित लोग पूरे विचारशून्य है यह आपका मन्तव्य है क्या? 

प. पु. दक्षिणामूर्ती स्वामी - यद्यपि आंग्लभाषा की विद्वत्ता से हमारा परिचय नही, तथापि अन्य किसी भी विषय में वें चाहें कितने ही विद्वान क्यौं न हो, तथापि वेदकालनिर्णय अथवा वेदार्थ प्रतिपादन में वें अविद्वानही( अनधिकारी) ही है, ऐसा कहना अप्रस्तुत तो नही होगा ।

लोकमान्य - क्या भाषा का भेद विद्वत्ता मे भेद करता सकता है? 

प. पु. दक्षिणामूर्ती स्वामी - यद्यपि भाषाभेद विद्वत्ताभेद का कारण नही हो सकता किन्तु शास्त्रीय विषय का अर्थात शास्त्रोंके यथार्थ ज्ञान का अभाव यह दोष निर्माण कर सकता है ।

लोकमान्य - ठीक है तो ऐसा कहने में क्या आपत्ती है की सर्वज्ञ ऋषीयोंनेंही अपने अलौकिक ज्ञानसे वेदोंका रचा ।

प. पु. दक्षिणामूर्ती स्वामी - इससे वेदोंका अबाधित अपौरुषेयत्व नष्ट हो कर उनको पौरुषेयत्व प्राप्त होगा । 

लोकमान्य - जिन विषयोंका प्रमाण मिलेगा उनको स्वीकार करकें शेष भागको अप्रमाण घोषित करेंगे तो क्या होगा? 

प. पु. दक्षिणामूर्ती स्वामी - ऋषीयोंकी सर्वज्ञता को बाधा आयेगी । और यदि उनकी सर्वज्ञता को स्वीकार कर उनके कई वाक्यों यदि हम अप्रमाण मानेंगे तो उससे "वदतो व्याघात" काही दोष लगेगा । अब हम प्रश्न करते हैं की वेद रचयिता ऋषीयोंको सर्वज्ञता कैसे प्राप्त होगी?

लोकमान्य - तपश्चर्या से ! 

प. पु. दक्षिणामूर्ती स्वामी - तो फिर वेदोंको रचनेवाले इन ऋषीयोंको तपश्चर्या का विधान किसने किया? वेदे तो हुए ही नही थे । अच्छा यदि हम तपश्चर्या के विधान के लिए वेदोंको माने तो वेदोंको प्राक्सिद्धत्व तो प्राप्त होता ही है । यदि वेदोंका अनादित्व न माने तो वेदोंकी सिद्धी सर्वज्ञ ऋषीयोंपर एवं उनका सर्वज्ञत्व वेदबोधित तपश्चर्याके विधानोंपर यह अन्योन्याश्रय का दोष तो उत्पन्न हो ही जायेगा । 

लोकमान्य - तो क्या वेदोंको ईश्वरने रचा ?

प. पु. दक्षिणामूर्ती स्वामी -  नही । वेद तो अनादि है किन्तु सृष्टी के आविर्भाव के सहित उनका आविर्भाव होता है यह हमने पहलेही कथन किया है । हाँ वेदोंका प्रथमोच्चारण मात्र ईश्वरको जाता है । इसी कारण कई ग्रंथकार उसे ईश्वरप्रणीत मानते हुये भी उनको अपौरुषेय मानते है किन्तु वेद ईश्वरकर्तृक है ऐसा नही मानते ।

लोकमान्य - तो फिर ऋग्वेद प्रथम, पश्चात यजुर्वेदादि ऐसा पूर्वोत्तर भाव क्यौ?

प. पु. दक्षिणामूर्ती स्वामी - ऐसा कोन मानता है? वेद तो एकही, ऋग्वेदादि केवल उसके अंगभेद है । एकही ज्ञानका विषय प्रतिपादित करते समय वाक्योच्चारण सें उसमें पूर्वोत्तर भेद तो रहेगी ही ।

लोकमान्य - आपका मन्तव्य की वेद अनादि एवं अपौरुषेय है यह बुद्धी को मान्य नही होता । 

प. पु. दक्षिणामूर्ती स्वामी - संप्रदायपूर्वक शास्त्राध्ययन नही है, यही इसका कारण है ।


विस्तारभयास्तव केवल इतनाही संवाद दे पा रहा हुँ । पाठकोंसे निवेदन है की वे स्वयं लोकमान्य के इस खंड का मुलरुपसे विस्ताररुपसे अध्ययन स्वयं करले । तथापि हमनें यहाँपर महत्वपूर्ण संदर्भ देकरही अपना मन्तव्य प्रकट किया है यह स्पष्ट है । 

उपरोक्त संवाद में संप्रदायपूर्वक अध्ययन यह शब्दप्रयोग आया है जिसका अर्थ है गुरु के सम्मुख बैठकर वेदोंका अध्ययन करना । अर्थात ब्रह्नचर्यादि नियमोंका पालन कर गुरुके साथ निवास करके छंद, कल्प, शिक्षा, निरुक्त, ज्योतिष एवं व्याकरणादि षड्वेदांगोंका अध्ययन, जो वेदार्थ को प्राप्त करने हेतु अत्यंत आवश्यक है, उसे करके उस के उपरान्त वेदोंका अर्थ निकालने की चेष्टा(प्रयत्न) करना आवश्यक है । इसी को संप्रदायपूर्वक अध्ययन कहते है । केवल वेद संस्कृत में है इसी कारण कोई संस्कृत अंग्रेजी या किसी भी भाषा का शब्दकोष का आधार लेकर वेदार्थ प्रतिपादन करना तो दुराग्रह है एवं वह वेदोंके साथ अन्याय है । 

उपरोक्त संवाद से हम यह निष्कर्ष पर प्राप्त होते है की लोकमान्य स्वयं वेदोंको मनुष्यकृत मानते थे अर्थात वे वेदोंका अपौरुषेयत्व अस्वीकार करते थे । एवं वे पाश्चिमात्योंके वेदोनुवाद को प्रमाण मानकर स्वयं के अनुमान लगाते थे । अर्थात पाश्चिमात्योंको वे प्रमाण मानते थें किन्तु शास्त्रोंको नही । 

क्या वेदोंमे इतिहास है???

कोई भी ग्रंथ मनुष्यनिर्मित होने के कारण उसमें इतिहास तो होता ही है अथवा हो सकता है । किन्तु वेद तो अपौरुषेय होने के कारण उसमें इसिहास तो होही नहीं सकता । वेद तो मनुष्यनिर्मित नही है इसकी चर्चा तो उपरोक्त संवाद में है ही । तथापि पाठक प्रश्न उपस्थित करेंगे की वेदोंमे जो विविध प्रसंगोंके वर्णन है वे क्या है??? उसका उत्तर निम्नलिखित कथन से ! 

वेदोंमे कतिपय युद्धोंका वर्णन है एवं कतिपय कथाओंका भी । इन कथाओंका अर्थ लौकिक अर्थसे युद्ध या कथा हो सकता है परंतु निरुक्तादि वेदांगोका एवं शतपथ ब्राह्नणादि ग्रंथो का यदि हम अध्ययन करें तो यह कथाएँ कोई लौकिक कथा न होकर वे सब यौगिक अर्थसे प्रतिपादित होणारी घटनाएँ है । जैसे की इन्द और वृत्रासूर संग्राम । अब आर्याक्रमण सिद्धांत के समर्थक लोग इसी कथा को आर्य-अनार्य वाद समझकर उसे आर्याक्रमण सिद्धांत के हेतु प्रसृत करते है । वास्तव में यह कथा तो खगोलीय अर्थात आकाश में घटनेवाली घटना का रुपक है । यहा जो इन्द्र है वह सूर्य है एवं जो वृत्र है वह कृष्णमेघ अर्थात आकाश का काला बादल जो पर्जन्य की बौछार पृथ्वीपर करता है । और इसका प्रमाण निरुक्त में दिया है । निरुक्त कहता है "तत्को वृत्र:? मेघ इति निरुक्ता:" अर्थात वृत्र किसे कहते है? निरुक्तवाले मेघकोही वृत्र कहते है । सो यह देवासूर संग्राम कोई स्वर्ग या पृथ्वी की घटना न होकर यह आकाशीय अथवा खगोलीय घटना है ।  स्वयं लोकमान्य भी इस अर्थको स्वीकार करते है फिरभी वे वेदोंको अपौरुषेय मानने में हिचकीचाते है । 
ऐसे अनेक प्रमाण देकर हम सिद्ध कर सकते है की वेदोंमे आर्य अनार्य का ना तो कोई संबंध है और नाही कोई इतिहास का । इससे वेदोंका अपौरुषेय सिद्ध होता है । यद्यपि इसकेलिए स्वतंत्र ग्रंथ की निर्मिती करना पडे इतना इस विषयका विस्तार हो सकता है कारण यह विषय ही उतने महत्वका तो हैही अपितु बडी कठिनाई एवं प्रमाणोंका है । अत: यहाँपर ही इसको समाप्त कर देना आवश्यक है ।

लोकमान्यके सिद्धांतकी त्रुटीया

लोकमान्य कहते है की उत्तरध्रूव पर जो दो महिनोंकी रात होती है उसके कारण आर्य मुल उत्तरध्रुवनिवासी ही थे । परंतु ऐसा भी हो आर्य यहाँसे वहाँ गये हो । वे वहाँसे यहा आये ऐसा ही अर्थ क्यौ निकालना आवश्यक है इसका प्रमाण लोकमान्यनही देते? यदि हम ये मान भी ले की आर्य मूल उत्तरध्रूवनिवासी थे तो उन्होनें वेदोंमे उस निवास को छोडने का शोक क्यौं नही प्रकट किया? यदि हम इस पृथ्वी के विविध देशोंके अथवा वंशोंके इतिहासकी और दृष्टी दे तो हमें यह ज्ञात होता है की जब भी किसी वंश ने अथवा व्यक्तिसमुह ने कुछ कारण किसी राष्ट्र का या प्रदेश का त्याग किया है और वह दुसरे स्थानपर निवास हेतु निर्गमन कर चुका है, तो वह समूह अपने मुलस्थान के प्रति कोई न कोई तो शोकके संदेश तो प्रकट करता ही है । किन्तु वेदोंमे तो ऐसा वर्णन ही नही है । यह बात महाराष्ट्र के एक विद्वान लेखक एवं व्याख्याता महामहोपाध्याय बालशास्त्री हरदास ने भी अपने १९५५-५६ के पुणे प्रवचन में प्रकट की है । सौभाग्यसे वह आज "वेदांतील राष्ट्रदर्शन" नामसे मराठी में ग्रंथरुपमें प्रकाशित है । उसका अंग्रेजी संस्करण भी "Vaidik Nation" नामसे प्रकाशित है । और एक आक्षेप ऐसा की इस सिद्धांत के प्रति एक महत्वपूर्ण विषय तो ये की लोकमान्य कहते है की आर्य वहाँपर सोमरस वनस्पती का पान करते थे । अब यदि हम सोमलता का अभ्यास करे तो वह वनस्पती केवल हिमालयपरही गुंजवान पर्वतपर प्राप्त होती है अन्यत्र नहीं, उत्तरध्रूवपर उसगा उगना संभवही नहीं। इससे भी लोकमान्य के सिद्धांत का आपोआप खंडण हो जाता है । 



लोकमान्यने स्वयं आगे जाके खंडण किया ।

लोकमान्यने "ओरायन" की प्रस्तावना मेंही लिखा है की
"यद्यपि मैनें इस विषय का वर्णन किया है, परन्तु मैं नहीं कह सकता कि मैंने उक्त विषय को प्रत्येक प्रकार से जैसा चाहिये वैसा प्रतिपादित किया है ।"

यह पढकर पाठकोंको आश्चर्य होगा की लोकमान्य ने स्वयं आगे जाकर अपने इस सिद्धांत का खंडण किया था । इसका प्रमाण यह है की लोकमान्य के इस ग्रंथप्रकाशन के पश्चात् अनेक विद्वानोंने उनपर यह आक्षेप लेना आरंभ कर दिया । उनमे विशेष रुपसे आर्यसमाजी वेदोंके विद्वान एवं गीताप्रेस गोरखपूरके हनुमानप्रसात पोद्दारजी भी थे । श्री. हनुमानप्रसाद पोद्दारजीने स्वयं अपनी आत्मकथा जो "जीवन गाथा" नामसे प्रसिद्ध है उसमें अंतिम समय पर जो विधान किया था वह इस सिद्धांत के संदर्भ में द्रष्टव्य है । वे कहते है की वे क्रांतिकारक होने के कारण तिलक से वारंवार भेंट करते थे । किन्तु तिलकके इस सिद्धांत के पश्चात जिस समय वे तिलक से मिलने पुणे में गयें तो उनके साथ उनकी इस विषय पर चर्चा भी हुई । उस संवाद में तिलक ने स्वयं यह मान्य किया की वे अपने सिद्धांत का खंडण स्वयं कर रहे है और उस विषय में उन्होनें स्वयं एक ग्रंथ भी लिखा है । उस ग्रंथकी पांडुलिपी(हस्तलिखित) उन्होनें स्वयं पोद्दारजीको दिखाई एवं उस संवाद का अंत हो गया । किंतु दुर्भाग्यसे उसके प्रकाशन के पहलेही तिलक जी का स्वर्गवास हो गया । पश्चात जिस समय पोद्दारजीने तिलकके पुत्रोंको उस ग्रंथ के प्रकाशन में पृच्छा की तो कोई उत्तरही नही आया ।

अब कोई यह सन्देह उठा सकता है की तिलक का बहोतसा वांग्मय उनके देहान्त के पश्चातही प्रकाशित हुआ है तो यह ग्रंथ क्यौ नही हुआ? इसी प्रश्न का तो उत्तर अभी तक नही मिला है । 

आर्य समाजके विद्वानोंका संदर्भ

उमेश चंद विद्या रत्न ने उनसे इस बारे में पूछा तो उनका उत्तर काफी हास्यास्पद था देखिये तिलक जी ने क्या बोला 
आमि  मुलवेद  अध्ययन  करि  नाई  आमि  साहब  अनुवाद  पाठ  करिया  छे  “( मनेवर  आदि  जन्म भूमि  पृष्ठ  १२४ )
अर्थात – हमने  मुलवेद नही पढ़ा हमने तो साहब (विदेशियों ) का किया अनुवाद पढ़ा है |

औरभी अनेकसे द्रष्टव्य संदर्भ है ।

लोकमान्यके समकालीन अनेक विद्वानोंने इस सिद्धांत का खंडण किया था । स्वयं स्वामी विवेकानंद जो लोकमान्य के साथ पुणें मे निवास कुछ दिवस निवासी थे, उन्होंने भी इस सिद्धांत का संपूर्ण खंडण किया था । सबसे प्रथम तो महर्षी दयानंदही थे ये हम पहलेंही कह चुके है । महर्षी अरविंदनेभीं उनके "वेद रहस्य" नामक ग्रंथ में इस सिद्धांत का संपूर्ण खंडण किया है । आज तो सौभाग्य से इस विषयपर अनेक ग्रंथोंका निर्माण हो चुका है जिसमें इस विषयका सप्रमाण खंडण किया गया है । केवल वैदिक संदर्भोंसेही नही अपितु पुरातत्व शास्त्र, भाषाविज्ञान एवं माननवंशशास्त्र और जनुकीय संरचना शास्त्र के सहाय्यतासेभी इस सिद्धांत का संपूर्ण खंडण हो चुका है । डॉ. आंबेडकरभी उनके "शुद्र कौन थे" इस ग्रंथ में स्वयं इस सिद्धांत का खंडण कर चूके है । केवल इतनाही नही शंकर बालकृष्ण दीक्षित नें भी उनके "भारतीय ज्योति:शास्त्र अर्थात भारतीय ज्योतिषाचा प्राचीन आणि अर्वाचीन इतिहास" इस मराठी ग्रंथ में तिलक के सिद्धांत का खंडण किया है । 

स्वयं मॅक्सम्युलरने भी यह सिद्धांत आगे जाकर अस्वीकृत किया था ।

जिस समय इस सिद्धांत के विपरीत परिणाम सम्मुख उपस्थित हुये, तो इन पाश्चिमात्य लोगोंकी अकल ठिकाने आ गयी । किन्तु उसे तो बहोत देर हो गयी थी । 

श्रीनिवास अय्यंगार नामक विद्वानने १९१४ मेंही लिखा है

"The Aryans do not refer to any foreign country as their original home, do not refer to themselves as coming from beyond India, do not name any place in India after the names of places in their original land as conquerors and colonizers do, but speak of themselves exactly as sons of the soil would do. If they had been foreign invaders, it would have been humanly impossible for all memory of such invasion to have been utterly obliterated between the Vedik and Avestan dialects."


यह सब लिखने का हेतु क्या है???

पाठकगण यह प्रश्न करेंगे की यह सब लिखने का कष्ट हमनें क्यौं उठाया? क्या हम तिलकजीसे भी बडे विद्वान है? क्या हम उनकी आलोचना कर उनकी निन्दा करने की इच्छा रखते है? क्या हम किसी दुष्ट या सुप्त हेतु अन्त:करण में रखकर यह लेख लिह रहे है?

इन सर्व प्रश्नोंका उत्तर है - नही । कदापि नहीं ! 

तो फिर क्या प्रयोजन है यह सब विश्लेषण का?

इस सर्व लेखन का प्रयोजन एवं सद्हेतु तो केवल यही है की इतिहास का सत्यान्वेषण हो एवं महापुरुषोंके सत्य विचार सामनें आये । केवल इतनाही नही वरन उन महापुरषोंके विचारोंका असत्य अर्थ निकालकर अपना स्वार्थ साधने का दुष्ट प्रयत्न करनें वालोंको भी इसका उत्तर मिले । 

राष्ट्रीय एकात्मता के लिए यह आवश्यक है ।

कोई भी राष्ट्र एवं संस्कृती तब तक जीवित रहती है जब तक वह आचरणीय हो । यदि आस्था को सत्य का आभास नही है तो उसका पतन निश्चित है । भारतीय संस्कृती तो सर्वश्रेष्ठ आचरणीय एवं अनुकरणीय है यह इतिहास की भी साक्ष है । तथापि जब हम अपने इतिहास या अतीत को भूल गयें एवं विदेशीयों के बहकावे में आकर आपने आपकों टोकने लगे, तबसेही हमारा पतन शुरु हुआ । इसी कारण हमें हमारा सत्येतिहास ज्ञात करना आवश्यक है । और यही इस लेख का एकमात्र हेतु है । जब तक इस आर्याक्रमण जैसे सिद्धांत को हमारे पाठ्यपुस्तकोंसे नही हटाया जाता, उस समय तक हमारी राष्ट्रीय एकात्मता को सुरक्षित रखना असंभवनीय होगा । कारण यह है की जो इतिहास भूलते है वे इतिहास की पुनरावृत्ती करते है । ब्रिटीशोंने इस राष्ट्रपर राज्य करनें हेतु जिन जिन षड्यंत्रोंका अवलंबन किया उसमे "तोडो और राज्य करो"(Divide and Rule) इस भेदनीती का अवलंबन करकें इस राष्ट्र की राष्ट्रीय एकात्मता को भंग करनेंका प्रयत्न किया । दुर्भाग्य से आजभीं यह प्रयत्न पाठ्यपुस्तकोंमे या अन्य स्थान पर गुप्त रुपसें किया जा रहा है । यदि हम सावध नही हुए तो परिणाम भयंकर होंगे । इसी हेतु यह सब अट्टाहास किया है । कृपया पाठकगण इसे अन्यथा न लें । 

संदर्भ ग्रंथों की सूची

१. चारो वेंदोंकी मुल संहिता एवं उनका हिंदी भाष्य - आर्य परोपकारिणी सभा, अजमेर
२. मृगशीर्ष अर्थात ओरायन - टिळक बंधु प्रकाशन -१ आॅगस्ट, १९९९ - अनुवादक वि. रा सहस्त्रबुद्धे
३. वैदिक आर्यांचे मूलस्थान (मराठी) -  टिळक बंधु प्रकाशन - २००९ - अनुवादक वि. रा सहस्त्रबुद्धे
४. वैदिक संपत्ती - पण्डित रघुनंदन शर्मा
५. भारतीय लिपींचे मौलिक एकरुप - गणपती शास्त्री हेब्बार - महाराष्ट्र राज्य साहित्य आणि सांस्कृतिकमहामंडळ
६. वेद रहस्य - महायोगी अरविंद
७. Educating to Confuse and disrupt - Makkhan Lal and Rajendra Dixit - India First Foundation, New Delhi (2005)
८. मैक्सम्युलर द्वारा वेदोंका विकृतीकरण - क्या, क्यौं और कैसे??? - डॉ. के व्ही पालीवाल
९. Life and Letters of Right Honourable Fredrich Max Muller - Two Volumes - London
१०. समग्र लोकमान्य टिळक(मराठी) खंड ६ - केसरी प्रकाशन पुणे, प्रथमावृत्ती - १९७६
११. शंकर बालकृष्ण दीक्षित लिखित "भारतीय ज्योति:शास्त्र अर्थात भारतीय ज्योतिषाचा प्राचीन आणि अर्वाचीन इतिहास"( मराठी) - १९३१
१२. विवेकानंद साहित्य जन्मशती संस्करण - प्रथम खण्ड - १९६३ - अद्वैत आश्रम, कलकत्ता



©तुकाराम चिॅचणीकर 

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