Sunday 2 September 2018

वेदविषय - शंका समाधान - लेखांक द्वितीय


*प्रश्न द्वितीय* -  संस्कृत भाषा वेद आने के पहले से थी तो संस्कृत भाषा ईश्वर की भाषा कैसे ?

*समाधान* -  संस्कृत भाषा वेद आनेके पूर्वथी ऐसा किस नें कहा है भाई ?

*सर्वेषां स तु नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक् ।*
*वेदशब्देभ्य: एवादौ पृथक्संस्थाश्च निर्ममे ।*

इस मनुस्मृतिके सिद्धान्तके अनुसार(यहीं सिद्धान्त सर्व प्राचीन ऋषियोनें एवं स्वयं आद्य शंकराचार्यजीने उनके ब्रह्मसूत्र भाष्यमेंभी मान्य किया है) वेद प्रथम है, पश्चात् सर्व साहित्य एवं वस्तुएं है । इसविषयपर हमारा एक लेख है वह पढ लीजियें ।

इसके अनुसार वेदके नामोंसे उन आदिसृष्टिकें ऋषिमुनियोनें उनकी भाषा, उनके आचारविचार, उनकी सर्व वस्तुओंका नामकरण किया । भाषा का नामकरण भी वैसे ही हुआ ।

और हाँ जाते जाते यह कहना आवश्यक है की वह भाषा वैदिक संस्कृत थी, आजकलकी लौकिक संस्कृत नहीं । यह लौकिक एवं वैदिक भेद क्या है इसपर कभी भविष्यमें लिखेंगे विस्तारसे ।

*वेद की लिपी है देवनागरी*

भाषा के हेतु आवश्यक है लिपी क्यौंकि लिपी के बिना भाषा सम्भवहीं नहीं । वेदकी भाषा है देवनागरी । इसका प्रमाण स्वयं वेद में है

*अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या ।*

यह मन्त्र जैसे अथर्ववेदमें है वैसे तैत्तिरीय आरण्यकमें भी है । यह लिपी ब्रह्मा ने आदिसृष्टिमें निर्माण की यह स्वयं बृहस्पति का वचन है । वह कहता है

*षाण्मासिकेsपि समये भ्रान्तिस्सञ्जायते नृणाम् ।*
*धात्राक्षराणि सृष्टानि पत्रारुढान्यत: पुरा ।*

सन्दर्भ - *आहुनिकतत्व, ज्योतिष्तत्व, व्यवहारप्रकाश आदि ग्रन्थ*

अर्थ - *छः मांस के अन्तरकालमें मनुष्य को भ्रान्ति (विस्मृति) होती है । इस हेतु उस आदि ब्रह्माने पूर्वमें निर्माण किए हुए अक्षरोंको लोग पत्रारुढ कहते है ।*

नारद स्मृतिमें (१।५।७०) लिखा है की

*नाकरिष्यद्यदि ब्रह्मा लिखितं चक्षुरुत्तमम् ।*
*तत्रैयमस्य लोकस्य नाभविष्यच्छुभा गति: ।*

(बृहस्पति का वार्तिक)

अर्थ - *लिखित अक्षर नामके अक्ष अर्थात नेत्र ब्रह्माने निर्माण किये ना हुए होते, तो पृथ्वी के सर्व व्यवहार ठीकसें नहीं हो पातें ।*

*वेद में लेखनकला*

कुछ मूढ लोग यह कहते है की वेद मौखिक परम्परा से हमें प्राप्त हुए तो इस कारण उस समय लेखनपरम्परा आर्योंको ज्ञात नहीं थी । यह आक्षेप भी निर्मूल है एवं निराधार है । वेदमें लेखनकला का उपदेश है इस विषय पर विपुल संशोधन भारतीय विद्वानोनें किया है । जैसे महर्षि दयानन्द एवं सर्व आर्य समाजी विद्वान । वैदिक विज्ञान नामसे आर्य समाजी विद्वानोंका एक मासिक प्रकाशित होता था, उसका पीडीएफ है, उसमें इस विषय पर कुछ लेख है ।

*तथा वेदमहर्षि सातवलेकरजी(तर्कसे वेदका अर्थ इस ग्रन्थमें)*

*वैदिक विद्वान गणपतिशास्त्री हेब्बार (भारतीय लिपींचे मौलिक एकरुप नाम सें उनके ग्रन्थमें )*

*पण्डित गौरीशङ्कर ओझा (उनके प्राचीन भारतीय लिपीमाला नामके ग्रन्थमें)*

*पण्डित रघुनन्दन शर्मा (उनके वैदिक सम्पत्ति एवं अक्षर विज्ञान नामक ग्रन्थमें )*

*पण्डित भगवद्दत्त रिसर्च स्कौलर उनके भाषा का इतिहास इस ग्रन्थमें*

और भी बहौतसे है । अस्तु ।

*उपरोक्त सर्व ग्रन्थ हमारे समीप पीडीएफ है ।*

निरुक्तकार यास्कके ग्रन्थपर जो दुर्गाचार्य की वृत्ति है उसमेंभी दुर्गाचार्यजीनें वेद कण्ठस्थ थे तो लेखन कला नहीं थी इस आक्षेप का खण्डन किया है । आप वहाँ पढ सकते है ।

अस्तु ।

*भाषा का ह्रास होता है या विकास ?*

आधुनिक डार्विनके मतानुयायी विकासवादी एवं उनके पक्षधर पाश्चात्य तथा कुछ अन्धानुयायी पौर्वात्य लोग कहते है की भाषा का विकास होता है एवं भाषा शनै: शनै: विकसित होती रहती है । यह पूर्ण रूपसे निराधार एवं कोरी कल्पना है इन विद्वानोंकी ।

वास्तवमें जैसे हमने पूर्वमेंही कथन किया था की वैदिक संस्कृत भाषा विश्वकी एकमेवही भाषा है, जिसमें आदिकालसें अद्यदिनपर्यंत कोई भी परिवर्तन नहीं हुआ । किंचितभी नहीं हुआ । जो कुछ भी परिवर्तन आज वैदिक एवं लौकिक संस्कृत के भेदसे दिखाई पड़ता है वह वास्तव में इस भाषा के ह्रास का विषय है ।

और यह मैं नहीं कर रहा हुँ क्योंकि मै कोई संस्कृत भाषा का विद्वान थोडी ही हुँ ?अभी तो मैं एक अल्पज्ञ एवं अज्ञानी व्यक्ति हुँ देव । *यह कह रहा एक ऐसा विद्वान जिसने अपने जीवनके साँठ (६०) वर्ष अर्थात छ: दशकसे अधिक वर्ष केवल संस्कृत भाषा के अध्ययनमें व्यय किये है । इस विद्वान का नाम है पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक !* इस मूर्धन्य स्वनामधन्य विद्वानने ६० वर्ष के अध्ययनपश्चात् जिस त्रिखण्डात्मक *संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास* नामक ग्रन्थ का निर्माण किया है, उसके प्रथम खण्डमें प्रस्तावनामें वे क्या लिखते है द्रष्टव्य है । लेखकनें और भी बहोतसा साहित्य निर्माण किया है जिसपर हम कभी भविष्य में लिखेंगे । अस्तु । वे लिखते है 👇

*संस्कृतभाषा विश्व की आदि भाषा है वा नहीं इसपर इस ग्रन्थमें विचार नहीं किया । परंतु भाषा विज्ञान के गम्भीर अध्ययन के अनन्तर हम इस परिणाम पर पहुंचे है कि संस्कृतभाषा में आदि(चाहे उसका आरम्भ कहीं से क्यों न माना जाय) से आज तक यत्किंचित परिवर्तन नहीं हुआ । आधुनिक भाषाशास्त्री संस्कृत भाषा में जो परिवर्तन दिखाते है, वह सत्य नहीं है ।  हाँ आपापत: सत्य अवश्य प्रतीत होते है परंतु उस प्रतीति का एक विशेष कारण है। और वह है संस्कृतभाषा का ह्रास ।  संस्कृतभाषा अतिप्राचीन कालमें बहुत विस्तृत थी ।  शनै: शनै: देशकाल और परिस्थितियों के परिवर्तन के कारण म्लेंच्छ भाषाओं की उत्पत्ति हुई और उत्तरोत्तर उनकी वृद्धि के साथ-साथ संस्कृतभाषा का प्रयोगक्षेत्र सीमित होता गया । इसीलिए विभिन्न देशोमें प्रयुक्त होनेवालें संस्कृतभाषा के विशिष्ट शब्द संस्कृतभाषा से लुप्त होगये । भाषाविज्ञानवादी संस्कृतभाषामें जो परिवर्तन दर्शाते है वह सारा इसी पदलोप अथवा संस्कृतभाषा के संकोच (ह्रास) के कारण प्रतीत होता है । वस्तुत: संस्कृतभाषा में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ । हमनें इस विषय का विशद निरुपण इस ग्रन्थ के प्रथमाध्याय में किया है । अपने पक्ष की सत्यता दर्शाने के लिए हमनें १८ प्रमाण दिये है। हमनें अपनें विगत ६० वर्ष के संस्कृत अध्ययन तथा अध्यापनकालमें संस्कृत भाषा का एक भी ऐसा शब्द नहीं मिला, जिसके लिए कहा जा सके की अमुक समयमें संस्कृतभाषामें इस शब्द का यह रुप था और तदुत्तपकालमें इसका यह रुप होगया ।*

प्रस्तावना - संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास - खण्ड प्रथम - पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक - चतुर्थ संस्करण - पृष्ठ १३

(हमारे समीप इसका द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ ऐसे तीनों संस्करण पीडीएफ स्वरुपमें उपलब्ध है)

पण्डितजी जैसा सुविद्य विद्वान यदि ऐसा सिद्धान्त मण्डित करता है तो हमें इसपर विश्वास करना कोई अत्युक्ति नहीं होगी । तथापि हम स्वयं इसका अनुभव कर सकते है ।

यद्यपि पाणिनीय व्याकरणमें द्वितीय बहुवचन का भेद वैदिक संस्कृत सें दर्शित होता है, इसके कारण कुछ भाषाविद यह लौकिक एवं वैदिक संस्कृत का भेद जानकर, जैसा की हमने प्रथमलेखमेंहि निर्देश किया था, यह अनुमान लगाते है की वैदिक संस्कृत में परिवर्तन हुआ है ।

किन्तु यह आरोप भी निराधार है ।

क्यौंकि देखिए वेदसंहिता के प्रत्येक शब्द एवं मंत्रमें पूरें भारतमें कहींभी उच्चारण का भेद तो नहीं वरन साम्यता ही है । एक अवाक्षर काभी भेद नहीं पाया जाता ।

क्यों भाई ? ऐसा क्यौं ?

यदि भाषा का विकास होता तो वैदिक संस्कृतमें परिवर्तन आ जाता ना । इससे सिद्ध है की वैदिक भाषा अपरिवर्तनीय तो हैही अपितु वह अपौरुषेयभी है ।

तुकाराम चिंचणीकर
पाखण्ड खण्डिणी
Pakhandkhandinee.blogspot.com

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