Tuesday 3 October 2017

वेदांचे अपौरुषेयत्व, आद्य शंकराचार्य नि वेदांमध्ये इतिहास - खंडन नि मंडन


वेदांचे अपौरुषेयत्व समजून देण्यासाठी लिहिलेला लेख !

क्या परमहंस आदि श्रीशङकराचार्य वेदोंमे इतिहास मानते है???

आचिनोति च शास्त्रार्थं आचारे स्थापयते अधि !
स्वयं ह्यपि आचरेत् य: तु आचार्य: इति स्मृत: !
वेद अपौरुषेय है यह सर्वानुमतसे वैदिकोंमे सिद्ध है |यहाँ हमने वैदिक शब्दका प्रयोग किया है, साम्प्रत कालके पाश्चात्योंका अन्धानुकरण करनेहारे मूढ विद्वानोंका, पुरातत्ववेत्ताओंका, इतिहासकारोंका नहीं | अस्तु | अत: वेदोंकी अपौरुषेयता पर उठाने जानेहारे आक्षेपोंका खण्डन | हारे शब्दका प्रयोग महर्षि दयानन्दने सर्वप्रथम किया था क्योंकि विशुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के आग्रहको लेकर | वाले शब्द शुद्ध हिन्दी नही है अत: |

वेदोंकी अपौरुषेयता प्रथम लक्षण तो यह है की उस ग्रन्थ में इतिहास नही चाहिये, क्यौंकि इतिहास तो तब लिखा जाता है जब घटना घटी हो | अत: वेद सृष्ट्यारम्भ से पूर्व होने से, जिसका प्रमाण नासदीय सुक्तसेभी प्राप्त होता है एवं पुरुषसूक्तसेभी एवं और भी मन्त्रोंसे, वे इतिहासग्रन्थ नही हो सकते | दुर्भाग्यसे इस सिद्धांत को न समझनेहारे कुछ लोग वेदोंमें इतिहास सिद्ध करने का व्यर्थ प्रयत्न करते है और उस हेतु आचार्य शङकर के साहित्य का आधार लेके अपना हेतु स्थापित करने का प्रयत्न करते है | इससे वैदिक सिद्धान्त की तो हानी होती ही है अपितु आचार्य के प्रति भी भ्रम प्रसृत होता है | अत: इस भ्रम को दूर करना हमारा कर्तव्य है इस हेतु आचार्य की भूमिका को स्पष्ट करनेहारा यह लेख पाठकोंके सामने प्रस्तुत है |

आक्षेप क्रमांक प्रथम - आचार्य आदि शंकर अपने बृहदारण्यक भाष्य मे कहते है:
"इतिहास इत्युर्वशीपुरुरवसो: संवादादिरुर्वशीहाप्सरा इत्यादि ब्राम्हणेव। पुराणमसद्वाइदमग्र आसिदित्यादि।।"
भावार्थ: उर्वशीनामक अप्सरा व राजा पुरुरवा इनके संवादरूप जो ब्राम्हण ग्रंथोमे वर्णन आया है, वो ब्राम्हणहि इतिहास है। और "यह सर्व जगत सृष्टीपूर्व असदरूप था" इत्यादि प्रकार के जो श्रुतीवाक्य है वहि पुराण है, ऐसा समझना चाहिये।
आचार्य आदि शंकर ने यहा इतिहास व पुराण को बिलकुल स्पष्ट कर दिया है।

समाधान - बलिहारी है आपकी भाई | आपने न तो आचार्य के इन वाक्योंका का ठीकसे अर्थ किया है और तो और नाही उसका संदर्भ ठीकसे दिया | यह द्वितीय बार हुआ है की आपने ठीकसे सन्दर्भभी नहीं दिया बृहदारण्यकोपनिषदका | ठीक है अब हम ही दे देते है |यह वाक्य बृहदारण्यक २.४.१० इस स्थानका है |
स यथार्द्रैंधाग्नेरभ्याहितात् पृथग्धूमा विनिश्चरन्त्येवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य निश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानान्यस्यैवैतानि निश्वसितानि ॥
इस पर भाष्य करते हुए आचार्य शङकर कहते है
इतिहास इत्युर्वशीपुरुरवसो: संवादादिरुर्वशीहाप्सरा इत्यादि ब्राम्हणेव। पुराणमसद्वाइदमग्र आसिदित्यादि।।
यहाँ आचार्य स्वयं कहते है की उर्वशी एवं पुरुरवा का संवाद ब्राह्मणग्रन्थ में इतिहास रुपसे है | कौनसा ब्राह्मण? तो वह है शतपथ ब्राह्मण जिसका स्थान ११.५.१ यहाँपर है | इसमें उर्वशी एवं पुरुरवा का पूर्ण संवाद है |यदि आपको देखने की इच्छा है तो वहाँ शोध ले सकते है |हाँ चुँकि आप लोग ब्राह्मण ग्रन्थ को भी वेद माननेके पक्षधर है जो पूर्णत: तर्कहीन एवं असत्य है | जिसका उत्तर हमनें निम्नलिखित गोपथब्राह्मणके सन्दर्भ से दिया है |आप तो इतने हठी है की आचार्य के अर्थ को यथार्थ न समझपर आचार्यपर ही आरोप कर बैठे है | अरे भाई आचार्य के उपरोक्त वचन आचार्य वेदोमें अर्थात् मन्त्रभागमें इतिहास नही मानते, वे ब्राह्मणग्रन्थमें उर्वशीपुरुरवा का इतिहास मानते है और वह सत्यभी है | क्योंकि ब्राह्मणग्रन्थ तो ऋषिकृत होनेसे उनमें अनित्य व्यक्तियोंका इतिहास तो सिद्ध है ही | यह हम कभीभी नकारते नही वरन् हमारें सिद्धांत को यह पुष्टी भी देता है | क्योंकि वेद अर्थात मन्त्रभाग को छोडकें सर्व ग्रन्थ पौरुषेय अर्थात मनुष्य या ऋषिकृत है |तो उनमें इतिहास तो होगाही | किन्तु मन्त्रभाग अर्थात वेदोमें इतिहास नही सिद्ध हो सकता |
अब हम आपको आचार्यकेही स्थानपर आसीन एक शंकराचार्य का संवाद देते है जिससे आद्य शंकराचार्य स्वयं वेदोमें इतिहास नही मानते यह सिद्ध होता है |
उनका नाम है जगद्गुरु श्री अभिनव विद्यातीर्थ स्वामीगल, जो शृंगेरी पीठ के ३५ वें आचार्य है |
A series of dialogues where Jagadguru Sri Abhinava Vidyatirtha Swamigal, the 35th Acharya of the Sringeri Sharada Peetham, gives clarifications on a variety of topics concerning Sanatana Dharma. The book is a Publication of Sri Vidyatirtha Foundation, Chennai. (Rs.50)] is reproduced from the Chapter ‘Veda-s’:
//Disciple: We find many stories in the Veda-s. Are they accounts of historical events?
Acharyal: No. The stories do not relate to actual worldly incidents. The Veda-s, which are like the breath of the Supreme Being, have no beginning. As such, they are not the records of the historical events of any age. The Brihadaranyaka Upanishad for instance, contains a discussion between sage Yajnavalkya and king Janaka. This is not the retelling of a dialogue between two individuals who lived in some specific period. An event similar to that narrated could have occurred at some time but it cannot be said that this is what has been cited in the Upanishad. The stories in the Veda-s are meant only as an illustration.
बस इससेही स्पष्ट है की आचार्य स्वयं वेदोमें इतिहास नही मानते और स्वयं उनकेही पीठ पर आसीन एक आचार्य यह कथन कर रहा है | बस इससे और प्रमाणोंकी क्या आवश्यकता है???
पूर्वमेंही हम कह चुके है वेदोमें किसी भी अनित्य व्यक्ती का या वस्तुका या कथाओंका इतिहास नही है, जो भी है वह पश्चातके सर्व ग्रन्थोमें है जेसे ब्राह्मण, उपनिषद, पुराण आदि | वेद नित्य होनेके कारण एवं वे सृष्ट्यारंभ में ही प्रकट होने के कारण उनमें किसी लौकिक व्यक्तीका इतिहास होना केवल असंभवही नहीं वरन् मूर्खता ही है | हाँ जो कुछ भी इतिहास है वह सृष्टीरचना का ही है और वह होना भी चाहिये क्यौंकि सृष्टीरचना जहाँ भी होगी वह उस परमात्मा एवं उसकी प्रकृति सेही उन निश्चित नियमोंसे होगी जो वेद में है | सृष्टिरचना कहींभी एवं कितनी भी बार होगी वह एकही नियमसें होगी इसका प्रमाण आचार्य शङकर ने स्वयं ब्रह्मसूत्रभाष्यमें दिया है


इत्यतो धर्माधर्मफलभूतोत्तरा सृष्टिर्निष्पद्यमाना पूर्वसृष्टिसदृश्येव निष्पद्यते |
अर्थ - इसलिए धर्म एवं अधर्मकी फलभूत जो उत्तरोत्तर सृष्टि उत्पन्न होती जाती है, वह पूर्व सृष्टि केही समान है |
(संदर्भ - पृष्ठ ७०४, अध्याय १, पा ३, शाङकरभाष्य रत्नप्रभा भाषानुवादित सहित, विक्रम संवत १९९३)

यह आचार्यकाही शारीरिक भाष्य है एवं इसपर जो रत्नप्रभा नामक भाष्य है और गोपीनाथ कविराज नेही इसका अनुवाद हिंदी में किया है | मेरे समीप यह है | यदि आपको इच्छा है तो प्रेषित करदुँगा |
सो इस सूत्रकें प्रमाण सेभी हम सिद्ध करते है वेदोंमें जो सृष्टिरचना का इतिहास है केवल वही है, अन्य नही | अन्य जो कुछ भी वर्णन या कथाएँ पायी जाती है वे सर्व अलङकारिक वर्णन है एवं उनके अर्थ भी योगिक एवं योगारुढ है, लौकिक नहीं | इसका प्रमाण स्वयं निरुक्तकार यास्क तो देते ही है देखियें
ऋग्वेद के १.३२.१० इस मन्त्र पर भाष्य करते हुए जहाँ वृत्र शब्द आया है निरुक्तकार कहता है
तत्को वृत्रो मेघेति नैरुक्ता:, त्वाष्ट्रोsसुर इत्यैतिहासिका: | अपां च ज्योतिपश्च मिश्रीभावकर्मणो वर्षकर्म जायते तत्रोपमार्थेन युद्धवर्णां भवन्ति, अहिवत्तु खलु मन्त्रवर्णां ब्राह्मणवादाश्च |
निरुक्त - २.१६
अर्थ - वृत्र कौन है? मेघ है यह नैरुक्त कहते है, त्वष्टा का पुत्र असूर है यह ऐतिहासिक कहते है | यदि हम वृत्र को मेघ माने तो मन्त्रोंमे जो इन्द्र वृत्र संग्राम का अर्थ क्या होगा? उत्तर है - पानी और ज्योति के मिलने से वर्षा की क्रिया उत्पन्न होती है, जिस पर उपमा के प्रयोजन से युद्ध का वर्णन है | वास्तव युद्ध नही अपितु रुपक अलङकारिक वर्णन है |यहाँ निरुक्तकार स्पष्टरुपसे "उपमार्थेन युद्धवर्णां भवन्ति" ऐसा शब्दप्रयोग करते है भाई, तनिक इसको तो देखो |
अब यहाँ निरुक्तकार इतिहास शब्द का प्रयोग करते है इसका अर्थ यह नही की वेदोंमें इतिहास सिद्ध है, इसका अर्थ तो यह है की वे उन लोगोंकी बात कर रहे है जो वेदोमें इतिहास ढुँढते रहते है | यही प्रमाण सत्य एवं तर्कशुद्ध है | आचार्य का भी वही है |
यही नियम उपरोक्त उर्वशी-पुरुरवा संवाद जिसको आप वेदोंमे इतिहास सिद्ध करनेका प्रयत्न करते हो उससे भी लगता है | हाँ हम ये नही अमान्य करते की उर्वशी या पुरूरवा की कथा घटी ही नही होगी, वह इतिहास हुआ भी होगा | किन्तु वेदोंमे वर्णित जो पुरुरवा उर्वशी का वर्णन है वह ऐतिहासिक न होकर अलङकारिक सिद्ध होता है | कैसे यह हम देखते है |आप यहाँपर इसी आचार्य शङकर का नाम लेके उनको वेदोमें इतिहास माननेका आरोप कर रहे है इसका निराकरण भी स्वयं आचार्यने तो किया ही है | किन्तु आपके सहाय्यार्थ अब हम एक और विद्वान का भाष्य प्रस्तुत करते है जो स्वयं आचार्य वेदोमें इतिहास नही सिद्ध करते यही मन्तव्य प्रकट कर रहा है, देखिये


ब्रह्मवैवर्तपुराण भाग २ भूमिका पृष्ठ २-३ आनन्दाश्रम संस्कृत ग्रन्थावली प्रकाशन
यह ग्रन्थ आपको आंतरजालपर प्राप्त भी हो सकता है आपको इस धागेंपर प्राप्त हो
इसके चित्र हमने जोड दिये है अन्त में |
देखिये यहाँ लेखक भूमिका में यही कह रह है की जो लोग आचार्य के उपरोक्त बृहदारण्यक वचन को लेकर पुराणोंपर भी वेदोंके समान प्रादुर्भाव का अर्थात अपौरुषेयता का आरोप कर रहै एवं आचार्य वेदोंमे उर्वशी पुरुरवा यह अनित्येतिहास मानते है यह आरोप कर रहै, वह सब मिथ्या है | इन लोगों की यह भूल है यही इस लेखक का कहने का तात्पर्य है |आपके हेतु मैने वह संस्कृत मूल भूमिका चित्ररुपसे जोड दियी है, कृपया अवलोकन करें ! विस्तार के कारण उस पूर्ण भूमिका का हम अनुवाद दे नहीं सकते है | आप स्वयं पढ ले | तैत्तिरीय आरण्यक अथवा बृहदारण्यक इन जगहोंपर जहाँ भी पुराण शब्द का वेदोंके साथ उल्लेख आया है उससे पुराण वेदोंके समान नही होते वरन् वे पश्चात्केही प्रकट होते है | यहाँ ध्यान रहे की यह लेखक कोई आर्य समाजी नही है वरन् आचार्य कोही माननेहारा है अपितु अद्वैतीही है | यह द्रष्टव्य है | क्यौंकि आजकल के वैदिक विद्वान वेदोमे इतिहास केवल आर्य समाजी भाष्यकारही नही शोधते इस भ्रम के शिकार है | हमने उपर निरुक्तकार यास्क, स्कंद स्वामी, आचार्य शङकर, उनकेही एक पीठासीन आचार्य इन सबका प्रमाण दिया है | अस्तु |
अत: वेदोमें किसी भी अनित्य मानव का इतिहास होही नही सकता | इसका कारण यही है की वेदोंके सर्व शब्द यौगिक अर्थ के है और नाही लौकिक अर्थ के | वेद सृष्टी के आरम्भ में ही प्रकट हुए हैं इसका प्रमाण स्वयं श्वेताश्वेतर उपनिषद भी देता है
यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै |
अब आप जिस महापुरुष आद्य शङकराचार्य का उदाहरण दे रहे है उन्होनेंही उसका क्या अर्थ किया है यह देखिये आपका समाधान हो जायेगा ! उपरोक्त आनन्दाश्रमकी लेखावली का लेखक उसपर भाष्य करता हुआ उस भूमिका में लिखता है की
"यो ब्रह्माणं विदधाति... (श्वेता. ६.१८)
इत्यादिश्रुतिस्मृतिवचनेभ्यो भगवतो वेदस्यैव प्राकूभावत्वं स्फुटी भवति |न खलु पुराणस्य |
इसमें वह लेखक विद्यारण्य स्वामी एवं अन्तमें आचार्यके उपरोक्त बृहदारण्यकके " पुराणमसद्वा" श्लोकार्ध का उल्लेख करते हुए लिखते है की
"श्रीभगवत्पूज्यपादा अपि बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्ये लिलिखु: | एवमन्यत्रापि |"
आपसे विनती है की आप यह पूर्ण संवाद पढे एवं इससे आचार्य भी वेदोंमे इतिहास नही मानते यह ज्ञान करलें |


अब मनुस्मृती का सिद्धांत देखते है 👇
सर्वेषां तु स नामानि कर्माणिच पृथक् पृथक् !
वेदशब्देभ्यः एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे !
मनु - १.२१
इसका अर्थ तो सरल है की
अर्थ - उस परमात्माने निश्चय करके सब के नाम, कर्म और पृथक् व्यवस्थायें आदिसृष्टीमेंही वैदिक शब्दोंसे भिन्न भिन्न निर्माण कीं |
इससे स्पष्ट है की वेदोंके शब्द प्रथम है एवं लौकिक व्यक्तीओंका इतिहास पश्चात का है एवं उन लौकिक व्यक्ती जैसे राम, कृष्ण, उर्वशी, पुरुरवा आदि लोगोंके नाम वेदोंसेही लिए है | किन्तु इससे उनका इतिहास वेदोंमें सिद्ध न हो कर यह नाम प्रत्युत योगिक सिद्ध होते है और नाकी लौकिक | पश्चात में उनके अर्थात ऐतिहासिक व्यक्तिओंके नाम इन वेदोंके योगिक नामों के अर्थोंसे रखे गये है |
अब आप जिस आचार्य शङकर का नाम दे रहे है उन्होनेंही यह सिद्धांत स्वयं उनके ब्रह्मसूत्र भाष्यमें १/३/३० इस सूत्रमें
समाननामरूपत्वाच्चावृत्तावप्यविरोधो दर्शनात्स्मृतेश्च।
इसपर वे आद्य शङकराचार्य कहते है
ऋषीणां नामधेयानि याश्च वेदेषु दृष्टय |
शर्वयन्ते प्रसूतानां तान्येवैभ्यो ददात्यजः ||
अर्थ - ऋषियोंके जो नाम थे और वेदकी जो शक्ति थी, पुन: प्रलयके अन्तमें उत्पन्न होनेपर अजने अर्थात् ब्रह्माने उन्हीं नामों और शक्तियोंको उन्हें दिया |

पृष्ठ ७०९ - शाङकरभाष्य - रत्नप्रभा - भाषानुवादसहित - भाष्यकार गोपीनाथ कविराज
विक्रम संवत १९९३
आपने आचार्य को भी वेदोमें इतिहास सिद्ध करनेहेतु काम पे लगा रहे है जो उनके स्वयं का मन्तव्य नही है |
कुर्मपुराणमभी उपरोक्त सिद्धांतही कथन किया है
कूर्मपुराणम्-पूर्वभागः/सप्तमोऽध्यायः
वेदशब्देभ्य एवादौ निर्ममे स महेश्वरः ।
आर्षाणि चैव नामानि याश्च वेदेषु सृष्टयः ।७.६८
शर्वर्यन्ते प्रसूतानां तान्येवैभ्यो ददात्यजः ।।
यथर्त्तावृतुलिङ्गानि नानारूपाणि पर्यये ।७.६९
लिङ्गपुराणम् - पूर्वभागः/अध्यायः ७० यहाँभी यही सिद्धान्त है |
हमने तो पूर्वमेहीं स्कन्दस्वामी नामक ऋग्वेदके प्रथम भाष्यकार का सन्दर्भ दे कर कहा था की वेदोमें आये हुए देवापि-शान्तनु आदि शब्द यह यौगिक अर्थ के है जिसमें वे कहते है
देवापि विद्युत | शन्तनुरुदकम् |
किन्तु परवर्ती साहित्य में यह ऐतिहासिक है |हम मानते है की महाभारतमे तो शांतनु भीष्म का पिता है | इसे हम नकारते भी नही कभी | किन्तु आप जैसे लोक वेदोंमे यदि शान्तनु शब्द आया तो उसे भीष्म के पिता के साथ जोडनेका जो यत्न करते है वह अप्रस्तुत तो हैही वरन् वैदिक सिद्धान्तोके विपरीत भी है | इस लिए आपसे विनती है की सत्य का स्वीकर करें |
अब उर्वशी पुरुरवा के सन्दर्भ में अन्तिम सन्दर्भ देते है | आचार्य वररुचि ऋग्वेद के १०.९५.१४ इस मन्त्रमें जहाँ उर्वशी एवं पुरुरवा का संवाद है वहाँ भाष्य करते हुए लिखते है
"नैरुक्तपक्षे तु पुरुखा मध्यमस्थान: वाय्वादीनामेकत्वात्, पुरु रोतीति पुरुरवा: उर्वशी विद्युत् |
अर्थ - नैरुक्तपक्ष में तो पुरुरवा को मध्यमस्थानी एवं उर्वशी को विद्युत कथन किया गया है !
इससे भी सिद्ध होता है की वेदोमें वर्णित उर्वशी-पुरुरवा संवाद ना किसी ऐतिहासिक पक्ष का है अपितु वह यौगिक अर्थसे विद्युत एवं मध्यमस्थानी का है |इससे भी आपके आक्षेप का निवारण होता है |
अत: वेदोमें आचार्य शङकर उर्वशी एवं पुरुरवा का इतिहास सिद्ध करते है यह आपका अर्थ निराधार एवं मूलहीन है | आप व्यर्थही आचार्य पर यह आरोप कर रहे है |
अस्तु !


आक्षेप क्रमांक द्वितीय -
आचार्य आदि शंकरने अपने शारीरीक भाष्य के प्रथम अध्यायके तृतीय पाद के २९वे सूत्रपर अपने भाष्य मे व्यासोक्ती मे एक श्लोक दिया है..
युगांतेsन्तर्हितान वेदान सेतिहासान महर्षयः।
लेभिरे तपसा पूर्वमनुज्ञाता स्वयंभुवा।।
भावार्थ: युगो के अंत मे इतिहास के साथ वेद अदृश्य हो गये थे। किंतु, महर्षीयोने प्रथम ब्रम्हदेवकी आज्ञा प्राप्त कर अपने तपोबलसे वो सेतिहास (स-इतिहास) वेद पुनरपि प्राप्त किये।

समाधान - इसका अर्थ ये तो नही सिद्ध करता की वेदोमें मानव इतिहास होता है | यह तो आपका मनगढन्त अर्थ एवं कल्पना ही है | क्यौंकि हमने आचार्यकेही भाष्य से आचार्य की भूमिका उपरोक्त लेख में स्पष्ट कर दी है | अस्तु |

आक्षेप क्रमांक तृतीय -
अमरकोष आदि प्राचीन कोशों में पुराण के पांच लक्षण माने गये हैं :
सर्ग (सृष्टि), प्रतिसर्ग (प्रलय, पुनर्जन्म), वंश (देवता व ऋषि सूचियां), मन्वन्तर (चौदह मनु के काल), और वंशानुचरित (सूर्य चंद्रादि वंशीय चरित) ।
सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वंतराणि च ।
वंशानुचरितं चैव पुराणं पंचलक्षणम् ॥
(१) सर्ग – पंचमहाभूत, इंद्रियगण, बुद्धि आदि तत्त्वों की उत्पत्ति का वर्णन।
(२) प्रतिसर्ग – ब्रह्मादिस्थावरांत संपूर्ण चराचर जगत् के निर्माण का वर्णन।
(३) वंश – सूर्यचंद्रादि वंशों का वर्णन
(४) मन्वन्तर – मनु, मनुपुत्र, देव, सप्तर्षि, इंद्र और भगवान् के अवतारों का वर्णन।
(५) वंशानुचरित – प्रति वंश के प्रसिद्ध पुरुषों का वर्णन।

समाधान - आप पुराण शब्द के अर्थ करनेसे उनको वेदोंके समान यदि अपौरुषेय सिद्ध करना चाहते है तो आप हमारे उपरोक्त लेख को पुनश्च पढिये | हम सिद्ध कर चुके है की वेद पहले है एवं उसके आधार पर पुराणोंकी रचना व्यासजीने की है | और वो भी प्रक्षेपोंको छोडकर | और पुराण शब्द का अर्थ इतिहास है और जो जो ग्रन्थ ऐतिहासिक है वह सर्व पौरुषेय अर्थात मनुष्यकृत अथवा ऋषिकृत है |वह कभीभी वेद नही हो सकता |

आक्षेप क्रमांक चतुर्थ - : ऋच: सामानि छन्दांसि पुराणं यजुषा सह।। - अथर्ववेद ११.७.२.
मनु महाराज कहते है:
स्वाध्यायं श्रावयेत पित्रे धर्मशास्त्राणि चैवहि।
आख्यानानीतिहासांश्च पुराणान्यखिलान्यपि।।
अर्थात: (श्राद्ध काल मे) पितरों को वेद, धर्मशास्त्र, आख्यान, इतिहास और सारे पुराण सुनाने चाहिये।
आज के तमोयुगी कली में प्रायः कुछ लोग 'पुराण' शब्द की अपने अपने तर्क को सत्य साबित करने के लिए अलग अलग व्याख्यायें, भावार्थ रखते है।
किंतु; आचार्य आदि शंकर से बड़ा शास्त्रों का ज्ञाता आज के समय मे संभवतः कोई नही। उनसे अधिक शास्त्र का ज्ञान सांप्रत मोहग्रस्त काल मे किसी को नही होगा। सो आचार्य आदि शंकर पुराण व इतिहास इस संबंध में क्या कहते है? वो भी हम अगली पोस्ट में देख ले।
#वेद_पुराण_इतिहास

समाधान - आपको हमने आचार्य के साहित्य का सन्दर्भ देकेही सिद्ध कर दिया है की पुराण शब्द का अर्थ इतिहास है | निरुक्तकार यास्क उसकी "पुरा नवं भवति" यह निरुक्ती देते है | पुराण इतिहास ग्रन्थ है और चुँकि वेदोंमें इतिहास पक्ष का खण्डन हम प्रथम लेख में आचार्य शङकर के साहित्यसेही कर आये है, तो यह आपकी शङका भी निर्मूल है | इस लेखसे आप पुराणोंको भी वेदोंके समान अपौरुषेय दिखाने का जो अट्ट्हास कर रहे है वह आचार्य शङकर एवं वैदिक सिद्धान्तोसे भी विपरीत है | फिर भी हम अन्तमें एक गोपथब्राह्मण का प्रमाण देते है जिससे इस लेखमाला का अन्त कर देंगे |
गोपथब्राह्मण पूर्व २.१०
एवमिमे सर्वे वेदा निर्मिता: सकल्पा: सरहस्या: सब्राह्मणा: सोपनिषत्का: सेतिहासा: सान्वाख्याना: सपुराणा: सस्वरा: संस्कारा: सनिरुक्ता: सानुशासना: सानुमार्जना: सवाकोवाक्या: |
यहाँ ब्राह्मणकार स्वयं कह रहा है की कल्प, रहस्य, ब्राह्मण एवं अन्त तक के सर्व साहित्य आदि ग्रन्थ वेद नही है | अत: वे वेदोंके समान अपौरुषेय तो होही नही सकते | तथा उनमें इतिहास होने के कारण वे वेदोंके समान नही है | इससे भी वेदोमें इतिहास सिद्ध नही होता यह हमारा पक्ष प्रबल होता है अकाट्य प्रमाणों के साथ | अस्तु !
(लेख में दिये गये सर्व सन्दर्भ चित्र रुपसे संलग्न किये गये है, देखिये!)
अलमतिविस्तरेण बुद्धिमद्वर्य्येषु !
©तुकाराम चिंचणीकर
पाखण्ड खण्डिणी
Pakhandkhandinee.blogspot.com

2 comments:

  1. महत्वपूर्ण माहिती सुंदर लिखाण.
    जाकीर नाईक सारखे लोक हिंदू लोकांना वेदांमध्ये इतिहास सांगून धर्मांतरण करवत आहे. आणि आपलं दुर्भाग्य आहे की आपल्या लोकांना आपला धर्म, शिकवावा लागतो,आणि त्यापेक्षाही दुर्भाग्य अस की आपल्या सारखे शिकवायला तयार आहेत पण धर्म जाणून घेण्यात कोणाला Interest नाही.

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  2. उत्तम बोधप्रद लेख!

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