Thursday, 30 August 2018

वेदविषय - शंका समाधान - लेखांक प्रथम


यह लेखमाला का प्रथम भाग है । इसके अग्र पाच और प्रश्न एवं उनका समाधान ऐसे लेख आयेंगे ।

*प्रश्न* - यदि वेद ईश्वरीय ज्ञान है और आदिमें चार ऋषियोंको उनकें आत्मामें दिया है तो कुछ प्रश्न है । सृष्टि का प्रथम दिन ।

*समाधान* - सर्वप्रथम तो यह आपको ज्ञान होना आवश्यक है कि वेदज्ञान ईश्वर का नित्यज्ञान है और यह मान्यना सर्व प्राचीन ऋषियों कि है, केवल महर्षि दयानन्द वा आर्य समाज की नहीं । वसिष्ठ-विश्वामित्र-वाल्मीकिसे जैमिनी पतंजलि पर्यंत सर्व ऋषि वेद को नित्यज्ञान कि संज्ञा देते है । जैसे ईश्वर नित्य है वैसे उसका ज्ञान जो वेदरुपी चतुर्संहिताओंमें शब्द बद्ध है, वहभी नित्य है । अब नित्य शब्द का अर्थ क्या है इसका समाधान आपको ऋषिकृत *ऋग्वेदादिभाष्यभूमिकामें* प्राप्त हो जायेगा । इसके उपर हम पश्चातमें संवाद करेंगे । ऋषीके मन्तव्यानुसार जो उनका निजी नहिं अपितु सर्व प्राचीन परम्परा प्राप्त ऋषियोंका है, उसके अनुसार वेद जीवसृष्ट्यारम्भमें प्रदत्त ईश्वरीय ज्ञान है । आपने सृृष्टिका प्रथम दिन ऐसा उल्लेख किया है । यहाँ आपको क्या अर्थ प्रतिपादित है यह आपहीं कथन कीजिये । सृष्टि निर्माण होके तो चार अब्ज बत्तीस कोटी वर्ष हो गये है । हाँ मानवसृष्टि के वर्ष जो नित्यसंकल्पमें हम गिनते है उतने हुए है । आप देख सकते है ।महर्षीने वेदोंका आविर्भाव काल मानवसृृष्टिकें आरम्भ का काल माना है जो उपरोक्त नित्यसंकल्पका काल है और उसमें ना कुछ हानीं है ना कुछ त्रुटिं है ।

आपकी शंका है की

१. *उस समय यदि भाषा नहीं थी तो ज्ञान दिया कैसे ?*

*समाधान* - किसी भी भाषा कें सिवाय ज्ञान हो हीं नहीं सकता । वेद तो वैदिक संस्कृत भाषामें है एवं देनवागरीं लिपीमें है जो उन ऋषियोंके अन्त:करणमें प्रकट हुए । इसका प्रमाणभी वेदमेंही है हमने दिया था कुछ मास पूर्व । पुन: देंगे । उस परमात्मानेंही प्रकाश किया उनका ।

वास्तवमें ज्ञान की परिभाषा क्या है ? आपको किसी भी वस्तु का ज्ञान होता है इसका अर्थ क्या है ? कोई माध्यम तो आवश्यक है ना,
जैसे यह आपके और मेरे हातमें भ्रमणभाष्य (मोबाईल) है यह कैसे ज्ञान हुआ ? किसीने उसको वह नाम दिया है उसके लक्षणोंसेंही हमनें उस वस्तुका ज्ञान प्राप्त किया ना ।

योगदर्शन में कहा है की

*स एष पूर्वेषामपि गुरु: कालेनानवच्छेदात् । १.२६*

वह ईश्वर सर्व गुरओंका गुरु है जो कभी कालसें बंधता नहीं ।

क्योंकि ज्ञान उसको कहते हैं कि जिससे ज्यों का त्यों जाना जाय। जब परमेश्वर अनन्त है तो उसको अनन्त ही जानना ज्ञान, उससे विरुद्ध अज्ञान और अनन्त को सान्त और सान्त को अनन्त जानना अज्ञान अर्थात् ‘भ्रम’ कहाता है।

 ‘यथार्थदर्शनं ज्ञानमिति’ (तुलना-भ० गी० 13.11.)

 जिसका जैसा गुण, कर्म, स्वभाव हो, उस पदार्थ को वैसा ही जानकर मानना ही ‘ज्ञान’ और ‘विज्ञान’ कहाता है और उससे उलटा ‘अज्ञान’ है। इसलियेः-

*क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः॥*

यो० सू० समाधिपाद-24

जो अविद्यादि क्लेश, कुशल, अकुशल, इष्ट, अनिष्ट और मिश्र फलदायक कर्मों की वासना से रहित है, वह सब जीवों से विशेष ‘ईश्वर’ कहाता है।

भाषा की उत्पत्ति एवं विकास के सन्दर्भमें भारतीय मनीषियोंने जो चिन्तन किया है वह वेद से सन्दर्भ स्थापित करता है । यद्यपि पश्चिमी चिन्तक आजपर्यंत इस विषयपर अंतिम निर्णय नहीं कर पाएं, तथापि इसपर उन्होनें प्रमुखता से चार सिद्धान्तोंका मंडन किया है । इस विषय पर पण्डित भगवद्दत्तजीका *भाषा का इतिहास* यह ग्रन्थ अवलोकन करें यह विनती है । वास्तवमें तो विकासवाद को माननेहारे पश्चिमी एवं उनके अनुकरण करनेहारे एतद्देशीय अन्धानुयायी आधुनिक विद्वान भाषा का विकास होता है यह जो तर्कहीन सिद्धान्त का मण्डन करते है वह तर्ककी कसौटी पर तो टिक ता ही नहीं ।

इनके दुर्भाग्यसे मैक्सम्युलर सहित एतद्देशीय कुछ प्रामाणिक विद्वानभी यहीं अनुप्राणित करते है की आदिभाषा एक ही थी, उसमें कालान्तरसें विकार होकर उसके अनेक रुपान्तर हो गयें ।स्वयं मैक्सम्युलरभी उसके *भाषाविज्ञान (सायन्स ओफ लैंग्वेज)* इस ग्रन्थमें लिखता है की

*We are more accustomed to all those changes in the growth of language, but it would be more appropriate to call this process of phonetic change a decay. On the whole, this history of all the Aryan Languages is nothing but a gradual process of decay.*

Page no. 51 and 272 - Volume I - Science of Language - Maxmullers

डार्विनका विकासवाद भाषा के सिद्धान्त पर तो पूर्ण रुपसे धराशायी होता है ।पण्डित रघुनन्दन शर्माजीने उसका समग्र विवरण वैदिक सम्पत्तिमें किया ही है, आप वहां देख सकते है ।

*Darwinism tested by the Science of Language*

इस ग्रन्थमें विकासवाद की भाषा के अध्ययन पर  धज्जियाँ उडायी गयीं है । डार्विनके विकासवाद को जर्मनी भाषा शास्त्रज्ञ श्लाईशरनेंभी इस ग्रन्थमें पूर्ण रुपसे खण्डित किया था । लंदनसे प्रकाशित यह ग्रंथ का आंग्लानुवाद १८५९ में हुआ था जिसमें डार्विनका भाषा का विकास होता है इसपक्ष की समीक्षा लेखकनें की है । वैदिक सिद्धान्त के अनुसार तो भाषा का ह्रास होता है, विकास नहीं ।

अब भाषा प्राप्त कैसे हुई ?

वैदिक सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्मा आदि ऋषियोनेंही (जी हाँ ऋषिही थे वे लोग) उनसे मनुष्य को वेदाश्रित भाषा प्रदान प्राप्त हुई । पौराणिक ग्रन्थोंमें उन्हे चार मुख वाला जो कहा जाता है वह गप्प है । इसका खण्डन स्वयं श्वेताश्वेतरोपनिद करता है । अस्तु ।

भाषा का इतिहास यह सिद्ध करता है की जिस किसी भी भाषा को सर्व भाषाओंका मूल मानना होगा, वह समृद्धही होनी आवश्यक है । यह विकासवाद के सर्वथा विपरित है । जिसको हम अन्त:प्रेरणा अथवा Revealation कहते है, उसकी आवश्यकता हैही जीवनमें । क्योंकि केवल ईश्वर को स्वाभाविकी ज्ञान होता है, मनुष्य को नहीं। आदिकालमें उस परमात्मानें चार ऋषियोंके अन्त:करणमें वेद ज्ञान का प्रकाश करना आवश्यक ही है ।

क्यौंकि कोई भी व्यक्ति अथवा मनुष्य ज्ञान स्वयं नहीं प्राप्त कर सकता है । यदि ऐसा होता तो हम पाठशालामें जाकर शिक्षा क्यौं प्राप्त करतें ? जन्मसेंही हमें ज्ञान क्यौं नहीं होता ?

कहाँ गये विकासवादी ? है कोई उत्तर ? सो शिक्षा की आवश्यकता तो हैही । इस हम नकारही नहीं सकते ।मैक्सम्युलर स्वयं लिखता है उपरोक्त ग्रन्थमें स्वयं देखिए

*If there is God who has created heaven and Earth, it will be unjust on His part, if He deprived millions of Souls born before moses of His Divine Knowledge. Reason and comparative study of religions declare that God gives His Divine Knowledge to Mankind from his first appearance on earth.*

एक ख्रिस्ती मिशनरी होकर भी वह सत्य को प्रकाशित करता है जो महर्षीनें भी प्रकाशित किया है ।

तुकाराम चिंचणीकर
पाखण्ड खण्डिणी
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#वेदज्ञान_ईश्वरीयज्ञान_ईश्वर_भाषा_विकास_उत्पत्ति_विकासवाद_मनुष्य

Friday, 17 August 2018

अटलस्य पश्य॒ काव्यं॒ न म॑मार॒ न जी॑र्यति । - लेखांक - प्रथम






अथर्ववेदामध्ये एक मंत्र आहे.

*ॐ अन्ति॒ सन्तं॒ न ज॑हा॒त्यन्ति॒ सन्तं॒ न प॑श्यति । दे॒वस्य॑ पश्य॒ काव्यं॒ न म॑मार॒ न जी॑र्यति ॥*

अथर्ववेद - १०.८.३२

*त्या देवाचे काव्य पहा जे कधीच जीर्ण होत नाही किंवा मरतही नाही. नाश पावत नाही.*

कैवल्यसाम्राज्य चक्रवर्ती संतश्रेष्ठ श्रीज्ञानोबारायांनी कवित्वाची लक्षणे सांगताना

*वाचे बरवें कवित्व ।*
*कवित्वीं बरवें रसिकत्व ।*
*रसिकत्वीं परतत्व ।*
*स्पर्श जैसा ।*

ज्ञानेश्वरी - १८-३४७

असे लिहिलंय.

आदरणीय श्री अटलजींच्या काव्यप्रतिभेचे चिंतन करताना ह्या उपरोक्त वचनांचा आधार घेण्याचा मोह टाळता येत नाही.

अगदी स्पष्टच आरंभी सांगायचे तर मला काव्यातलं क'ही कळत नाही. पण तरीही सिंबायोसिस महाविद्यालयांत असताना २००८ मध्ये आदरणीय अटलजींच्या *मेरी इक्यावन कविताएँ* हा काव्यसंग्रह वाचनांत आला. माझं भाग्य हे की आदरणीय अटलजी पंढरीत पंतप्रधान म्हणून आले असताना त्यांना पाहण्याचं भाग्य लाभलं. मी अगदी लहानच अकरा बारा वर्षांचाच होतो. लाडक्या पंतप्रधानाला समोर पाहणं हे खचितच स्वप्नपूर्तीचे लक्षण होतं. त्यावेळी अटलजींच्या कविता फारशा ज्ञातही नव्हत्या. पण पुढे सिंबायोसिस मध्ये त्या वाचल्या.

*अटलजींच्या वाणींस कवित्व, कवित्वांस रसिकत्व व रसिकत्वांस परतत्वाचा संस्पर्श होता. आणि हे परतत्व दुसरे आणखी काय असणार तर हे हिंदुराष्ट्रीयत्वच ! हे राष्ट्रीयत्वच त्यांचे कवित्व, रसिकत्व व परतत्व संस्पर्शत्व होतं.*


*अथ काव्यलक्षणम् ।*

आमच्या प्राचीन शास्त्रकारांनी काव्य शब्दाची मीमांसा करताना अनेक व्युत्पत्या दिल्या आहेत. *साहित्यशास्त्रकार श्री मम्मटाचार्यांनी*

*तददोषौ शब्दार्थौ सगुणौ ।*

अर्थ - *काव्यगुणसंपन्न निर्दोष शब्दरचना, शब्दसंहितारचना म्हणजे काव्य होय.*

तर *संतश्रेष्ठ श्रीज्ञानोबारायांनी* ज्ञानेश्वरीच्या आरंभी मंगलाचरणामध्ये वेदस्वरुप सांगताना अर्थात वेदांचे अपौरुषेयत्व सूचित करताना *काव्याचे लक्षण* ही ध्वनित केलंय. ते म्हणतात

*हे शब्दब्रह्म अशेष । तेचि मूर्ति सुवेष ।*
*जेथ वर्णवपु निर्दोष । मिरवत असे ।*

ह्यात निर्दोष शब्दरचना व लावण्याने नटलेली अर्थ शोभा हे काव्याचे प्रधान अंग सांगितलंय.

ह्याचेच पुढे चिंतन *रसगंगाधरकार श्रीजगन्नाथ पंडितांनी* करताना

*रमणीयार्थं प्रतिपादक: शब्द: काव्यम् ।*

अर्थ - *रमणीय अर्थ प्रतिपादन करणारी शब्द रचना म्हणजे काव्य होय.*

अटलजींच्या काव्यप्रतिभेचे चिंतन करताना *साहित्यदर्पणकार* आचार्य श्रीविश्वनाथाच्या *साहित्यसुधासिन्धु* ह्या ग्रंथाचे स्मरण होतं. तो लिहितो

*जायते परमानन्दो ब्रह्मानन्दो सहोदर: ।*
*यस्य श्रवणमात्रेण तद्वाक्यं काव्यं उच्चते ।*

*काव्य कशांस म्हणावं ? विश्वनाथ लिहितो की ज्याच्या श्रवणमात्रानेच ब्रह्मानंदासह त्याचा सहोदर परमानंदांसही आपण प्राप्त होतो, त्यांस काव्य म्हणावं.*


इथे अटलजींच्या व आम्हा रसिकांच्या दृष्टीनेही जो ब्रह्मानंद व त्याचा सहोदर परमानंद आहे, त्याचा *प्रतिपाद्य विषय हा साक्षात हे प्राणप्रिय हिंदुराष्ट्र, ही भारतमाता आहे.* अगदी सावरकरांच्या भाषेत

*तूंतेचीं अर्पिलीं नवी कविता रसाला ।*
*लेखाप्रति विषय तुंचि अनन्य जाहला ।*

इथे अटलजींच्या काव्याचा चिंतनाचा विषय वर सांगितल्याप्रमाणेच केवळ राष्ट्रच आहे. तोच एक अनन्य विषय आहे.

*काव्ये नवरसात्मक: ।*

काव्य हे रसात्मक आहे. हे रस नऊ आहेत असे वचन आहे. भरतमूनी मात्र त्याच्या नाट्यशास्त्रांत *अष्टौ नाट्ये रसास्मृता* अर्थात आठच रस मानतो. पण ह्यात एका *आणखी दोन रसांची भर आमच्या गुरुदेवांनी परमादरणीय श्री किसन महाराज साखरेंनी घातलेली आहे.* जिज्ञासूंनी त्यांचा *नवरसीं भरवीं सागरु* हा त्यांचा ग्रंथ वाचावा. असो. ह्या रसांचे चिंतन करताना गुरुदेव लिहितात की 

*हा रसभाव पूर्ण विदग्धवृत्तीनें अर्थात ह्रदयांस भिडून त्याचे विवक्षित परिणाम श्रोत्यांवर होतील, अशा शहाणपण लाभलेल्या चातुर्याने वर्णिलें आहेत ज्ञानोबारायांच्या साहित्यात.*



आदरणीय अटलजींच्या काव्यातही हे नऊरसांपैकी काही रस आपणांस दृष्टिपथांत येतातच. त्यांपैकीच काहींचे चिंतन इथे प्रस्तुत लेखमालेचा विषय आहे. प्रामुख्याने अटलजींच्या काव्यामध्ये वीर, करुण, अद्भूत, रौद्र, वात्सल्य व शांत रस येतात. ह्यातला वात्सल्य हा आविष्कार श्रीगुरुदेवांचाच आहे. असो.

येत्या लेखमालेंत ह्याचा काहीसा विचार करण्याचा आमचा हेतु आहे.

अगदी आरंभीच म्हटल्याप्रमाणे मला काव्यातलं क ही कळत नाहीच. तरीही गेली दीडच्या समीप दशक ह्या तरल प्रतिभेच्या नि कविमनाच्या अजातशत्रु राष्ट्रनेत्याचे हे काव्यचिंतन श्रवण करतो आहे. म्हणून माझ्या अल्पबुद्धिनुसार ह्या राष्ट्रपुरुषांस एक आदरांजली वाहण्याच्या हेतुने हा लेखनप्रपंच !

पुढील लेखांत भेटुच !

क्रमश: ।

भवदीय,

तुकाराम चिंचणीकर
पाखण्ड खण्डिणी
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#अटलजी_बिहारीवाजपेयी_पंतप्रधान_राष्ट्रपुरुष_राष्ट्रनेता_कवित्व_रसिकत्व_राष्ट्रीयत्व_हिंदुत्व_नऊरस

Tuesday, 17 July 2018

मनुस्मृती, परमादरणीय श्रीभिडे गुरुजी, राज्यघटना व डॉ. आंबेडकर



परमादरणीय श्री भिडे गुरुजींच्या *मनुस्मृती ही जगातील प्रथम घटना* ह्या उल्लेखावरून त्यांच्यावर तोंडसुख घेणारे पत्रभडवे, प्रेश्यावृत्तीने कार्यकरणारी प्रसारमाध्यमे (प्रेस्टिट्युट्स), त्यांचा द्वेष करणारी समाजमाध्यमांवर व्यक्त होणारी अर्ध्या हळकुंडांत पिवळी झालेली अक्कलशून्य पिलावळ, त्यांचेच वाचून किंवा पाहून भ्रमित झालेली सर्वसामान्य जनता ह्या सर्वांसाठी.👇

*स्वत: महामानव डॉ. आंबेडकरांनीच मनुस्मृतीचा उल्लेख आद्य घटनाकार असाच केलेला आपणांस साहित्यांत आढळतो.* निम्नलिखित सर्व संदर्भ आम्ही त्यांच्या समग्र आंबेडकर हिंदी वाङमयातले दिलेले आहेत, जे भारत सरकारने प्रकाशित केलेले आहे. हे सर्व साहित्य आंतरजालांवर पीडीएफ स्कैन्डही आहे.

*आम्ही प्रथमच सांगु इच्छितो की व्यावहारिक जीवनांत आम्हांस भारतीय राज्यघटना प्रमाण व मान्यच आहे. पण तरीही तिच्या नावाखाली उगाचच मनुला शिव्या देणार्यांसाठी हा लेखन प्रपंच.*

परमादरणीय श्रीगुरुजींच्या नावाने कंठशोष करणार्यांनी आधी आंबेडकरांची मते वाचावीत.👇

*आंबेडकरांनी केलेली मनुस्मृतीची स्तुती*

ते स्वत: मान्य करतात की मनु हा जगातला प्रथम राज्यघटनाकार

१. ‘‘स्मृतियां अनेक हैं, तो भी वे मूलतः एक-दूसरे से भिन्न नहीं हैं।………इनका स्रोत एक ही है। यह स्रोत है ‘मनुस्मृति’ जो ‘मानव धर्मशास्त्र’ के नाम से भी प्रसिद्ध है। अन्य स्मृतियां मनुस्मृति की सटीक पुनरावृत्ती हैं। इसलिए हिन्दुओं के आचार-विचार और धार्मिक संकल्पनाओं के विषय में पर्याप्त अवधारणा के लिए मनुस्मृति का अध्ययन ही यथेष्ट है।’’

(डॉ. अम्बेडकर समग्र हिन्दी वाङ्मय, खण्ड ७, पृ० २२३)

 (ख) *‘‘अब हम साहित्य की उस श्रेणी पर आते हैं जो स्मृती कहलाता है। जिसमें से सबसे महत्वपूर्ण मनुस्मृति और याज्ञवल्क्यस्मृति हैं।’’*

(वही, खण्ड ८, पृ० ६५)

(ग) *‘‘मैं निश्चित हुँ कि कोई भी रूढिवादी हिन्दू ऐसा कहने का साहस नहीं कर सकता कि मनुस्मृति हिन्दू धर्म का धर्मग्रन्थ नहीं है।’’*

(वही, खण्ड ६, पृ० १०३)

(घ) *‘‘मनुस्मृति को धर्मग्रन्थ के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।’’*

(वही, खण्ड ७, पृ० २२८)


*मनुस्मृती हा निर्बंधशास्त्राचाच अर्थात विधीनियमांचाच ग्रंथ - इति डॉ. आंबेडकर*👇👇👇


*(ङ) ‘‘मनुस्मृति कानून का ग्रन्थ है, जिसमें धर्म और सदाचार को एक में मिला दिया गया है। चूंकि इसमें मनुष्य के कर्तव्य की विवेचना है, इसलिए यह आचार शास्त्र का ग्रन्थ है। चूंकि इसमें जाति (वर्ण) का विवेचन है, जो हिन्दू धर्म की आत्मा है, इसलिए यह धर्मग्रन्थ है। चूंकि इसमें कर्तव्य न करने पर दंड की व्यवस्था दी गयी है, इसलिए यह कानून है।’’*
(वही खण्ड ७, पृ. २२६)

 अशा प्रकारे मनुस्मृती ही एक *तत्कालीन संविधान आहे, धर्मशास्त्र आहे, आचार शास्त्र आहे. हीच प्राचीन भारतीय साहित्यातली मान्यता आहे.डॉ.आंबेडकरांचे सुद्धा हेच मत होते.*

*मनुस्मृति का रचयिता मनु आदरणीय है*

 डॉ.आंबेडकर स्वत: उक्त मनुस्मृतीच्या रचयित्यांस आदरपूर्वक स्मरण करतात.

(क) *‘‘प्राचीन भारतीय इतिहास में मनु आदरसूचक संज्ञा थी।’’*
(वही, खंड ७, पृ० १५१)

(ख) *‘‘याज्ञवल्क्य नामक विद्वान् जो मनु जितना महान् है।’’*
(वही, खंड ७, पृ० १७९)


*आंबेडकर स्वत:च मनुला घटनाकार अर्थात विधीप्रणेता मानतात.*


*मनु हा विधिप्रणेता अर्थात घटनाकारच– डॉ. आंबेडकर*

ते स्वायंभूव मनूंस प्रथम घटनाकार मानतात. कसे ते पाहुयांत.

 *(क) ‘‘इससे प्रकट होता है कि केवल मनु ने विधान बनाया। जो स्वायम्भुव मनु था।’’*

(डॉ. अम्बेडकर समग्र हिन्दी वाङ्मय, खण्ड ८, पृ. २८३)

 ह्या मनुचे वंश विवरण देताना बाबासाहेबांनी सुदास राजाला इक्ष्वाकुच्या ५० व्या पीढींत मानलंय. इक्ष्वाकु हा सातव्या मनु वैवस्वताचा पुत्र होता आणि  वैवस्वत मनु हा स्वायंभुव मनुच्या सुदीर्घ वंशपरपरेतला सातवा मनु आहे.

(संदर्भ - वही खण्ड १३, पृ. १०४, १५२)

 *(ख) ‘‘मनु सर्वप्रथम वह व्यक्ति था जिसने उन कर्त्तव्यों को व्यवस्थित और संहिताबद्ध किया, जिन पर आचरण करने के लिए हिन्दू बाध्य थे।’’*

 (वही, खण्ड ७, पृ. २२६)

 (ग) *‘‘मनुस्मृति कानून का ग्रन्थ है।…..चूकिं इसमें कर्त्तव्य न करने पर दंड की व्यवस्था दी गयी है, इसलिए यह कानून है।’’*

 (वही, खण्ड ७, पृ. २२६)

 (घ) *‘‘पुराणों में वर्णित प्राचीन परपरा के अनुसार, जितनी अवधि के लिए किसी भी व्यक्ति का वर्ण मनु और सप्तर्षि द्वारा निश्चित किया जाता था, वह चार वर्ष की ही होती थी और उसे युग कहते थे।’’*
(वही, खण्ड ७, पृ. १७०)


 (ङ) *‘‘ये नियम मनु, याज्ञवल्क्य, नारद, विष्णु, कात्यायन आदि की स्मृतियों आदि से संकलित किए गए हैं। ये कुछ ऐसे प्रमुख विधि-निर्माता हैं जिन्हें हिन्दू विधि के निर्माण के क्षेत्र में प्रमाण-स्वरूप मानते हैं।’’*
(वही, खण्ड ९, पृ. १०४)

*(च) ‘‘इसे हिन्दुओं के विधि निर्माता मनु ने मान्यता प्रदान की है।’’*
 (वही, खण्ड ९, पृ. २६)


तुकाराम चिंचणीकर
पाखण्ड खण्डिणी
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Saturday, 25 November 2017

मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीरामचंद्र हे शुद्ध शाकाहारीच होते - आक्षेपांचं साधार नि सप्रमाण खंडण


यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जना: !
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते !
गीता ३:२१

श्रेष्ठ लोक जे आचरण करतात, त्याचंच अनुकरण इतर लोक करतात. ते ज्याला प्रमाण मानून आचरतात, सर्वसामान्य देखील त्यानुसारच वर्तन करतात. आमचे ज्ञानोबाराय ह्यावर भाष्य करताना म्हणतात

येथ वडिल जे आचरितीं
तया नाम धर्म ठेवितीं !
येर तेचिं अनुष्ठितीं,
सामान्य सकळ !
हा अटळ सिद्धांत आहे. रामायण महाभारत ही हिंदुतनमनाची जीवनादर्शे आहेत. त्यातूनही श्रीरामचंद्र नि पूर्णपुरुषोत्तम श्रीकृष्ण हीतर आमची परमदैवते आहेत. त्यामुळे ह्यांचं आचरण हे आम्हांस नित्यनुतन प्रेरणादायी तर आहेत पण अनुकरणीय नि अनुसरणीयही आहे. म्हणूनच ह्या राष्ट्रपुरुषांवर केल्या गेलेल्या खोट्या नि भ्रममुलक आरोपांचं खंडण करण्याचा हा एक साधार नि सप्रमाण प्रयत्न !

धर्माचे पालन, करणे पाषांड खंडण !
हेंचि आम्हां करणे काम ! बीज वाढवावें नाम !
जगद्गुरु तुकोबाराय

परकीयांचं राहुद्यात पण जेंव्हा आमच्यातलेच विद्वान लोक रामचंद्र हे मासांहारी होते असा दुष्प्रचार करतात तेंव्हा अंत:करण विदीर्ण होतं. त्यासाठी रामायणातल्याच काही श्लोकांचाच आधार देऊन हे प्रतिपादन केलं जातं. प्रस्तुत लेखाचा उद्देश्य त्या श्लोकांचा सत्यनिष्ठ नि तर्कशुद्ध नि व्याकरणशास्त्राला धरून असलेला अर्थ सांगण्याचा आहे. तो खालीलप्रमाणे पाहु. त्याआधी श्रारीमचंद्रांच्या शाकाहाराच्या प्रतिज्ञा पाहुयांत

प्रसंग एक - रामचंद्रांनी वनवासाचे वर्णन सीतेला सांगणे - अयोध्याकांड २८ वा सर्ग
वनवासाला निघायच्या आधी रामचंद्रांनी सीतेला वनवासाचं कष्टमय असं खरं स्वरुप समजून दिलं आहे. ते म्हणतात की

अहोरात्रं च संतोष: कर्तव्यो नियतात्मना: !
फलैर्वृक्षावपतितै: सीते दु:खमतो वनम् ! १२ !
अर्थ - सीते ! तिथे मनाला वशीभूत करून झाडावरून पडलेल्याच फळांच्या आहारावरच दिवसरात्र संतोष मानावा लागतो. म्हणून वन हे दु:खप्रद आहे.

उपवासश्च कर्तव्यो यथा प्राणेन मैथिलि 'स
जटाभारश्च कर्तव्यो वल्कलाम्बधारणम् !१३।
अर्थ - हे मिथिलेशकुमारी ! आपल्या शक्तीनुसार उपवास करणे, डोक्यावर जटाभार धारण करण आणि वल्कल वस्त्र धारण करणे - हीच तिथली जीवनशैली आहे.

यथालब्धेन कर्तव्ये: संतोषस्तेन मैथिलि !
यताहारैर्वनचरै: सीते दु:खमतो वनम् ! १७ !
अर्थ - हे मैथिली, वनवासींना जिथे जसा आहार मिळेल तसं त्यावर संतुष्ठ राहावं लागतं. म्हणून ते दु:खप्रद आहे.


निरामिष आहाराची प्रथम प्रतिज्ञा - अयोध्याकाण्ड २०वा सर्ग २९ वा श्लोक 

चतुर्दश हि वर्षाणि वत्स्यामि विजने वने !
कंदमूल फलैर्जीवनम हित्वा मुनिवदामिषम !
अर्थ - मी राज्यभोग्य वस्तूंचा त्याग करून एखाद्या मुनीप्रमाणे कंदमुळे आणि फळे भक्षण करून जीवन निर्वाह करेन आणि १४ वर्षे निर्जन वनामध्ये वास करेन.

आता एवढी स्वच्छ प्रतिज्ञा करणारे रामचंद्र मांसाहारी असतील काय ???

निरामिष आहाराची श्रीरामचंद्रांची वनवासाच्या सुरुवातीचीच दुसरी प्रतिज्ञा - अयोध्याकांड ३४ वा सर्ग !

आपल्या पित्याची दुःखी आणि विषण्ण अवस्था पाहून मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र पित्यास म्हणाले.  

फलानि मूलानि च भक्षयन वने गिरीन्श्च पश्यन सरितः सरांसि च !
वनं प्रविश्यामि विचित्र पादपं सुखी भविष्यामि तथास्तु निर्वृत्तिः ! ५९ !
अर्थ - मी विचित्र वृक्षांनी युक्त अशा वनांमध्ये प्रवेश करून फळ-मुल म्हणजे कंद फळांचा आणि कंद मुळांचा आहार करून तिथल्या पर्वतांना, नदींना आणि सरोवरांना पाहून सुखी होईन. म्हणून आपण आपल्या मनाला शांत करा ! 


निरामिष आहाराची श्रीरामचंद्रांची प्रयाग तीर्थावरच्या भरद्वाज मुनींच्या आश्रमातील तिसरी प्रतिज्ञा - अयोध्याकांड ५४ वा सर्ग !


भरद्वाज मुनींना आपला परिचय करून देताना श्री रामचंद्र म्हणतात. 
पित्रा नियुक्ता भगवन प्रवेक्ष्यामस्तपोवनम !
धर्ममेवाचरिष्यामस्तत्र मुलफलाशना: ! १६ !
अर्थ - हे भगवान ! ह्या प्रकारे पित्याच्या आज्ञेने आम्ही तिघेही तपोवनांत जाऊ आणि तिथे फळ आणि कंदमुळे हा आहार घेऊन धर्माचेच आचरण करू.

आता आत्तापर्यंत तीन वेळा शाकाहाराची अशी प्रतिज्ञा करणारे रामचंद्र हे मांसाहारी कसे असतील??? आणि त्यातूनही रामचंद्र हे एकवचनी आहेत हे सर्वश्रुत आहेच. म्हणजेच जो शब्द दिला तोच पाळणार. त्यामुळे पुढे जाऊन त्यांनी मांसाहार केला असेल तर त्यांच्या प्रतिज्ञेलाच बाधा येईल. 


रामो द्विर्नाभिभाषते !
म्हणजेच श्रीरामचंद्र हे दोन तोंडी वक्तव्य कधीच करत नाही. एकदा जे बोलले ते अटल असते. त्यात पुन्हा परिवर्तन नाही अशी त्यांची खाती आहे आणि मर्यादाही आहे. म्हणूनच ते मर्यादा पुरुषोत्तम आहेत. तरीदेखील काही जणांना त्यांच्यावर संशय घ्यायचा असेल तर मग धन्य आहे त्यांची ! शेवटी मुर्खाला किती उपदेश केला तरी फरक पडताच नाही.
संस्कृतमध्ये एक सुभाषित आहे.

नोsलुकोsप्यवलोकते दिवा किं सूर्यस्य दूषणम् !

आता तरीही आपण ते आक्षेपार्ह श्लोक पाहूयात ज्यावरून मांसाहाराचा आरोप केला जातो. 


प्रसंग प्रथम - सीतेने गंगा पार करताना गंगामातेला काही पदार्थ अर्पण करेन अशी केलेली प्रार्थना - अयोध्याकांड ५२ वा सर्ग 

रामचंद्रांवर मांसाहाराचा आरोप करणारे सर्व जण ह्याच प्रसंगाचा जाणीवपूर्वक संदर्भ देतात. कारण ह्यातले काही श्लोक हे वरवरून तरी त्याच अर्थाचे वाटतात. पण त्याचा नक्की अर्थ काय ते पाहू. सीता म्हणते. 

सुराघटसहस्त्रेण मांसभूतौदनेन च !
यक्ष्ये त्वां प्रीयतां देवि पुरीं पुनरुपागता ! ८९ !

ह्याचा सर्वजण अर्थ शब्दशः "सुराघटसहस्त्रेण" म्हणजे दारूचे सहस्त्र घट असा घेतात. "मांसभूतौदनेन" ह्या शब्दाचा अर्थसुद्धा शब्दशः घेतला तर मांसाहाराचीच व्यंजने असा होतो पण तो इथे युक्त नाही. आक्षेपकार असा आरोप करतात की मनुष्य जो पदार्थ खातो तोच देवतेला अर्पण करतो. त्यामुळे सीतेने मांसाहार अर्पण केला. प वि वर्तकांनी पण त्यांच्या “वास्तव रामायण” मध्ये हाच आरोप केला आहे. पण इथेच तर मुख्य चूक आहे.
ह्या श्लोकाचा वास्तविक अर्थ खालीलप्रमाणे आहे.

सुराघटसहस्त्रेण ह्या शब्दाची व्युत्पत्ती अशी आहे - " सुरेषु देवेषु न घटन्ते न संतीत्यर्थः, तेषां सहस्त्रं तेन सहस्त्र संख्याक सूरदुर्लभ पदार्थेनेत्यर्थः !"
मांसभूतौदनेन ह्या शब्दाची व्युत्पत्ती अशी आहे - "मांसभूतौदनेन मा नास्ति अंसो राजभागो यस्यां सा एव भूः पृथ्वी च व्रतं वस्त्रं च ओदनं च एतेषां समाहारः, तेन च त्वां यक्ष्ये !"

ही व्युत्पत्ती आम्ही जिथून दिली आहे तो संदर्भ !

वाल्मीकि रामायणावर ज्या तीन संस्कृत टीका आजपर्यंत झाल्या आहेत त्यात. 
१. राम ह्या भाष्यकाराने केलेली तिलक टीका
२. शिवसहाय ह्याने केलेली रामायण शिरोमणी
३. गोविंदराज ह्याची भूषण हि टीका 
ह्या तिन्ही टीकांचे प्रकाशन १९८३ वर्षांत परिमल प्रकाशन दिल्लीने केले असून आंतरजालावर ती आज स्कॅन्ड स्वरुपात पूर्ण उपलब्ध आहे. त्यातल्या अयोध्याकांड येथे पृष्ठ क्रमांक ७१९ वर हा संदर्भ आहे. यावरून ह्या पूर्ण श्लोकाचा सत्यनिष्ठ आणि तर्कशुद्ध अर्थ खालीलप्रमाणे होईल.

अर्थ - हे देवी ! अयोध्येला परत आल्यानंतर मी तुला सहस्त्र देवदुर्लभ पदार्थ तसेच राजकीय भाग रहित पृथ्वी, वस्त्र आणि अन्नाद्वारे तुझी पूजा करेन. ! तू माझ्यावर प्रसन्न हो ! 

इथे जाताजाता एक सांगणे आवश्यक आहे की वाल्मीकि रामायणाची जी १९६० ला बडौदा येथून प्राच्यविद्या संशोधन केंद्राने केलेली चिकित्सक प्रत जी आहे, की जी रामायणाच्या २०० हून अधिक प्रतींचा चिकीत्सक अभ्यास करून संपादित केलेली आहे, त्यात हा उपरोक्त श्लोक नाहीये. बंगशाखीय गौरेशियाचे जे रामायण आहे त्यात तर उत्तरकांड हे देखील नाहीये. पंडित भगवद्दत्त रिसर्च स्कौलर ह्या विद्वानांनी संपादित केलेय पश्चिमोत्तररामायणात तर हा प्रसंग ५६ व्या सर्गात असून तिथे उपरोक्त श्लोकच नाही.  त्यामुळे हा श्लोक प्रक्षिप्त सिद्ध होतो हे सिद्ध आहे. आणि जरी नाही मानला तरी आम्ही वर दिलेली रामायण शिरोमणी आदि टीकाकारांची व्युत्पत्तीही त्याचे खंडन करतेच करते.


दुसरा आक्षेप 


ह्याच सर्गातल्या शेवटच्या श्लोकात लिहिले आहे की
तौ तत्र हत्वा चतुरो महामृगान वराहमृश्यं पृषतं महारुरूम !
आदाय मेध्यं त्वरितं बुभुक्षितौ वासय काले खयतुर्वनस्पतिम ! १०२ !
अर्थ - तिथे त्या दोन्ही भावांनी मृगयेसाठी वराह, ऋष्य, पृषत आणि महारुरू या प्रकारच्या वनस्पतींवर प्रहार केला. त्यानंतर जेंव्हा त्यांना भूक लागली, तेंव्हा पवित्र कंद-मुल इत्यादी वनस्पती घेऊन सायंकाळी निवासासाठी ते एका झाडाखाली गेले. 

आता क्षणभर आपण ते प्राणी मृगया म्हणजे शिकार केली असे जरी अर्थ घेतला तरी याचा अर्थ तेच अन्न खाल्ले असे थोडीच आहे??? कारण वनवासात कंद मुळे खायची ही प्रतिज्ञाच केलेली आहे. मग मांसाहार करण्याचा प्रश्नच येत नाही. दुसरे असे की आम्ही वर ज्या तीन टीकांचा उल्लेख केला आहे त्यातही कुठेही मांसाशन सांगितलेले नाहीये. उलट गोविंदराज त्यांस “वनस्पतिमूल” असेच स्पष्ट भाष्य करतो. त्यामुळे ह्या प्रसंगातही रामचंद्राने मांसाहार केला हे मान्यच करता येत नाही. आश्चर्य म्हणजे उपरोक्त आम्ही उल्लेखिलेल्या तीनही संस्करणात तो श्लोकच नाहीये. म्हणूनच हा श्लोकही प्रक्षिप्त सिद्ध होतो. तरीपण ज्यांना हे पटत नाही त्यांनी आयुर्वेदिक भावप्रकाश, मदनपाल निघंटु आदि कोशांमध्ये हे वराह आदि शब्द कोणतेही प्राणी नसून वनस्पती आहेत असे स्पष्ट संदर्भ आहेत ते पाहावेत.


प्रसंग तिसरा - चित्रकूटावर पर्ण शाळेची निर्मिती आणि वास्तुपुरुषाला शांतीसाठी पदार्थाचे अर्पण - अयोध्याकांड ५६ वा सर्ग !

चित्रकूटावर आल्यानंतर निवासासाठी पर्णकुटी बांधण्यासाठी दोघा बंधूंनी तयारी केली. रामचंद्राने आज्ञा देताच लक्ष्मणाने अनेक प्रकारच्या वृक्षांच्या फांद्या कापून आणल्या आणि त्यातून एक पर्णकुटी बांधली. ती सुंदर झालेली पाहून रामचंद्रांनी लक्ष्मणाला म्हटले .

ऐणेयं मांसमाहृत्य शालां यक्ष्यामहे वयम !
कर्तव्यं वास्तुशमनं सौमित्रे चिरजीविभिः ! २२ !
ह्यातला " ऐणेयं मांसम" ह्या शब्दाचा पुन्हा तोच प्रकार आहे. शब्दशः अर्थ मांस असा होतो. पण मदनपालाच्या "निघण्टु" ह्या संस्कृत शब्द्कोशानुसार ह्या शब्दाचा अर्थ "गजकंद" असा आहे. हा एक कंदाचा प्रकार आहे. हा  गजकंद नावाचा कंद रोगनाशक आहे आणि आयुर्वेदात तो प्रसिद्ध आहे.  मदनपालाच्या निघण्टुनुसार ह्याला "षटदोषादिकुष्ठहन्ता" असे म्हटले आहे. हा कंद चामड्याचे दोष आणि कुष्ठादि रक्त विकारांचा नाश करतो. 


भगवान श्रीरामचंद्र म्हणतात की 
मृगं हत्वाssनय क्षिप्रं लक्ष्मणेह शुभेक्षण !
कर्तव्यः शास्त्रदृष्टो हि विधिधर्ममनुस्मर !

इथे "मृगं हत्वा" ह्या शब्दाचा अर्थही अनेक जण "मृग" म्हणजे हरीण असा घेतात. पण इथे तो अर्थ आयुर्वेदिक वनस्पती आहे. त्याची कारणे मी निम्नलिखित संदर्भात सविस्तर दिलं आहे. त्यामुळे आता अर्थ होईल..

अर्थ - हे लक्ष्मणा, तू गजकंद नावाच्या कंदाचा शोध घेऊन तो जमिनीतून उखडून लवकर आणून इथे दे. कारण शास्त्रोक्त नियमांनुसार अनुष्ठान आपल्यासाठी परमकर्तव्य आहे. तू धर्माचेच सदैव चिंतन कर. 

तत् तु पक्वं समाज्ञाय निष्टप्तं छिन्नशोणितं !`
लक्ष्मणः पुरुष व्याघ्रमथ राघवमब्रवीत !२७! 

इथे "छिन्नशोणितं" या शब्दाची व्युत्पत्ती अशी आहे - छिन्नं शोणितं रक्तविकाररूपं रोगजातं येन सः तम !   

अर्थ - रक्तविकाराचा नाश करणारा तो गजकंद एक झालेला पाहून त्या लक्ष्मणाने पुरुषसिंह श्री रामाला असे म्हंटले.

अयं सर्वः समस्तान्गः श्रुतः कृष्णामृगो मया !
देवता देवसंकाश यजस्व कुशलो ह्यसि ! २८ !.

इथे "समस्तान्गः" शब्दाची व्युत्पत्ती अशी आहे - सम्यग भवन्ति अस्तानि अङ्गानि येन सः !
अर्थ - हे देवोपम श्रीरामचंद्र ! हा काळ्या रंगाचा गजकंद, जो बिघडलेल्या सर्व अंगांना ठीक करतो, मी त्याला पूर्ण शिजविले आहे. आता आपण वास्तुदेवतांना त्याचे यजन करा कारण आपण ह्या कर्मामध्ये कुशल आहात.


ह्याचे उपरोक्त आयुर्वेदिक वनस्पतींचे प्रमाण 

आम्ही वर प्रत्येक ठिकाणी प्राण्यांचे मांस असा अर्थ न घेता तो वनस्पती का घेतला आहे ते पाहावे. मांस ह्या शब्दाचा अर्थही वनस्पतीच्या किंवा फळाच्या आतील गाभा असाही होतो. फळाच्या आतील गर असाही होतो. म्हणूनच इथे तोच अर्थ सयुक्तिक आहे. निम्नलिखित प्रमाण द्रष्टव्य आहेत.
  
भावप्रकाश निघंटु -
कर्पूरादिवर्गः मृग - कस्तुरी - तीक्ष्ण, कड़वी, तिक्त, खारी, गर्म, वीर्यवर्द्धक, भारी कफ वात विष वमन शीत दुर्गन्धता तथा शोष को हरने वाली है।
कर्पूरादिवर्गः मृग – तगर - तगर, गर्म, मधुर, स्निग्ध, हल्का और विषरोग मृगी शूल नेत्ररोग तथा वात पित्त कफ तीनों को हरने वाली हैं।
(http://sanskrit.jnu.ac.in/bpnighantu/search.jsp?itext=%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%97&itrans=&lastChar=#results) ह्या घाग्यावर हे प्रमाण उपलब्ध आहे.

प्रसंग चौथा - भरताचे रामाकडे येण्यापूवी गुहकाने त्याला वस्तू भेट देणे आणि त्यावरून त्यांची परीक्षा करणे - अयोध्याकांड - ८४ वा सर्ग 


निषादराज गुहकाने आपल्या बंधूंना नदीची रक्षा करण्यास सांगितले आणि युद्धासाठी तयार राहण्यास सांगितले आणि भेटीची सामुग्री घेऊन तो भारताजवळ गेला. आतिथ्याचा स्वीकार करण्याची विनंती केल्यावर तो भेटवस्तु देता झाला. त्या वेळीच श्लोक 
इत्युक्त्वोपायनं गृह्य मत्स्यमांसमधुनि च !
अभिचक्राम भरतं निषादाधिपतिर्गुह: ! १० !
इथे "मत्स्यमांस" या शब्दाचा अर्थ "मत्स्यंडी" अर्थात मिश्री असा आहे. म्हणजे माशाची अंडी नव्हेतच ! कारण मत्स्यंडी या नावाचा एक अंश "मत्स्य" असा जरी असला तरीही नावाच्या एका अंशावरून संपूर्ण शब्दाचा अर्थ ग्रहण केला आहे.

अर्थ - असे म्हटल्यावर निषादराज गुह मिश्री, फळांचे भार आणि मध आदि पदार्थांची भेट घेऊन भारताजवळ गेला.
ह्याचे प्रमाण
भावप्रकाश निघणटू - हरीतक्यादिवर्गः
मत्स्य - हाऊबेर-अग्निप्रदीपक, कड़वा, कोमल, गरम, कसैला, भारी और पित्त, उदर, वायु, बवासीर, संग्रहणी, गुल्म तथा शूलरोगनाशक है। दूसरी भी यही गुण करती है केवल रूप भेद है।
मत्स्य - कुटकी - रस में कड़वी, पाक में तीखी, रूखी, शीतल, हल्की, मलभेदक, अग्निदीपक, हृदय को हितकर और कफपित्त, ज्वर, प्रमेह, श्वास, खांसी, रुधिरविकार, दाह, कोढ़ तथा कृमिनाशक है।
(http://sanskrit.jnu.ac.in/bpnighantu/search.jsp?itext=%E0%A4%AE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AF&itrans=&lastChar=#results)

मांस शब्द वारंवार आला तरी तसा जनावरांचे मांस असा अर्थ घेताच येत नाही कारण त्याने श्रीरामचंद्रांच्या तीन प्रतिज्ञांना बाधा येते. आणि ते श्लोक परस्परविरोध, अंतर्विरोध, वेदविरोध व्याकरणविरोध ह्या कसोटींनीही प्रक्षिप्त सिद्ध होतात. दुसरे असे की मांस शब्दाचा आणखी एक अर्थ फळाच्या आतला गाभा किंवा गर असाही होतोच. म्हणूनच वनस्पती कारक अर्थच योग्य आहेत.

थोडक्यात उपरोक्त संदर्भावरून हे सिद्ध होते की रामचंद्रांवर मांसाहाराचे जे आरोप केले जातात ते तथ्यहीन व निराधार असून त्यांस उपरोक्त प्रक्षेपादि, प्रतिज्ञाविरोधी, अंतर्विरोधी, वेदविरोधी, परस्परविरोधी, व्याकरणविरोधी प्रमाणांनी आम्ही सप्रमाण खंडन केले असून रामचंद्रांच्या शाकाहाराचे प्रमाणत्व सिद्ध केलंय..


आता महत्वाचा सिद्धांत - वैदिकांना मांसाहाराचा अधिकारच नाही.

मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीरामचंद्रांचे वर्णन वाल्मीकिंनी बालकांडात चतुर्वेदांचा जाणकार, षड्वेदाङगांचा जाणकार असे स्पष्टपणे केलंय. पुढे  हनुमंत सीतेंस भेटायला गेले असताना तिथेही ते त्यांचे वर्णन करताना त्यांचे वेदानुयायित्व स्पष्टपणे सांगतात. त्यातही रामचंद्र हे त्रिकाल संध्या करणारे असे स्पष्ट रामायणांत ठिकठिकाणी लिहिलंय. स्वत: सीतामाता देखील संध्या करत होत्या असाही हनुमंताच्या मुखाचे "सा सन्ध्याकालमना श्यामा ध्रुवमेष्यति" असे चिंतन आहे. वैदिक सिद्धांतानुसार कोणत्याही प्रकारच्या प्राण्याची हत्या व त्याच्या मांसभक्षणाचे अधिकार कुणांसच नाही, त्रैवर्णिकांस तर तो नाहीच नाही. वैदिक यज्ञ हा "अध्वर" असे असतो. निरुक्तकार यास्क त्यावर भाष्य करताना म्हणतात

ध्वरिति हिंसाकर्म तत्प्रतिषेध: !
ध्वर म्हणजे हिंसा व त्याचा जिथे निषेध तो यज्ञ हा अध्वर असतो. त्यामुळे वेदांमध्येही कोणत्याही प्राण्याच्या हत्येचे समर्थन तर नाहीत, मांसभक्षणाचे पण नाहीच. मां हिंस्यात् सर्वभूतानि असे अथर्ववेद म्हणतो स्पष्टपणे. जिज्ञासूंनी आमच्या पाखण्ड खण्डिणी नामक ह्याच ब्लौगवर सविस्तर लेखमाला अभ्यासावी.

काही लोक क्षत्रियांना मांसाहाराचा अधिकार आहे असा भ्रम करून घेतात की जो पूर्णत: चूक आहे कारण क्षत्रियही वैदिकच आहेत. ते द्विज आहेत अर्थात "द्वाभ्यां जन्म जायते इति द्विज:" ज्याचा द्वितीय जन्म होतो तो उपनयन संस्कार झालेला प्रत्येकजण !

वाल्मीकि रामायणांत मांसाहाराचा व मद्यपानाचा पूर्ण निषेध !

एक भरताचे प्रमाण घेऊ नि लेखणींस विराम देऊ - अयोध्याकांड ७६ वा सर्ग, ३८ वा श्लोक

भरताने श्रीरामचंद्रांस वनवास देणार्याचा निषेध करताना व निंदा करताना म्हटलंय की त्यांस मद्य व मांस भक्षणाचा दोष लागेल. तो म्हणतो.
लाक्षया मधुमांसेन लोहेन च विषेण च।
सदैव विभृयादभृत्यान् यस्यार्योsनुमते गतः।।
अर्थ - लाख, मांस, मद्य, मांसे पकडायचा काटा आणि विषाची विक्री करून आपल्या आश्रितांचे पालन जो करतो, त्यांस जे पाप लागतं तेच पाप त्यांस लागो ज्यांनी रामचंद्रांस वनवासाची अनुमती दिली.

आता ह्यावरून तर स्पष्ट होतं की रामायणकालांत मांसभक्षण व मद्यपांन पूर्ण पापी समजलं जायचं. असे असताना मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीरामचंद्र मांसाहार करतील???  त्यामुळे उपरोक्त वरवर मांस समर्थक वाटणारे श्लोक एकतर प्रक्षिप्त सिद्ध होतात व तसे न मानले तरी मांसनिषेधाच्या प्रतिज्ञेमुळे त्यांची आम्ही वर दिलेली व्युत्पत्तीही यथार्थ ठरते. 
असो अशा सर्वश्रेष्ठ पुरुषांस विनम्र अभिवादन !

मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीरामचंद्र की जय !
पवनसुत हनुमान की जय !!
जयतु वैदिक धर्म !!!

©तुकाराम चिंचणीकर
पाखण्ड खण्डिणी
Pakhandkhandinee.blogspot.com

#रामचंद्र_शुद्ध_शाकाहारी_रामायणातील_तथाकथित_मांसाहार

Friday, 20 October 2017

बळी वामनाची वास्तवकथा - असत्याचे वस्त्रहरण


धर्माचे पालन, करणे पाषांड खंडन !
हेंचि आम्हा करणें काम, बीज वाढवावें नाम !
तुकोबाराय

सर्वप्रथम सर्वांना दीपावलीच्या पाडव्याच्या नैका: हार्दा: शुभाशया: ! 

एक असत्य सहस्त्रवेळा सांगितले की ते सत्य वाटायला लागते ह्या गोबेल्स तंत्राप्रमाणे एरवी सर्व धर्मेतिहास थोतांड असला तरी हेतुपुरस्सर प्रतिवर्षी दीपावली आली पाडवा आला की बळी वामनावताराची मूळची सूर्याची रुपक कथा, जी पुराणांनी अकारण ऐतिहासिक करून विपर्यस्त केली, त्या कथेंस आपल्या टीपिकल ब्रेकिंग इंडिया प्रक्रियेसाठी फोडा नि झोडा ह्या अनीतीसाठी तिचा विपर्यांस करून ब्राह्मण-विरुद्ध ब्राह्मणेतर, तथाकथित बहुजन, आर्य-अनार्य वाद पेटवित राहणे हे सांप्रतचे धंदे आपणांस समाजमाध्यमांतून तर नेहमीच पहायला मिळतात. त्यावर काहींनी तर म्हणे ग्रंथनिर्मितीही केली आहे.
वस्तुत: ह्या वामनाच्या कथेतल्या बळीराजाचा शेतकर्यांशी काडीमात्र संबंध नसताना तो जोडला जाऊन ह्या कथेतून ब्राह्मण वर्ग हा शेतकर्यांशीच द्रोही आहे असे ठासविण्याचा विकृत हेतु सांप्रत लेखनांतून सतत सुरु आहे. 

शेतकर्याला बळीराजा म्हणायचेच असेल तर त्यांचा संबंध भगवान श्रीकृष्णांचे थोरले बंधु बलराम दादांशी जोडायला हवाय ज्यांच्या हातात आपण सदैव हल म्हणजे नांगर पाहतो. त्यांची गदा हल म्हणजे नांगर ही प्रमुख आयुधे आहेत. पण हेतुपुरस्सर त्याचा संबंध बळी वामनाच्या कथेशी जोडून भेदनीती अवलंबिली जातीय, त्याचे खंडन करण्यासाठी ह्या कथेचा नेमका परामर्श घेण्यासाठी केलेला हा लेखनप्रपंच ! 

वामनावताराची पुराणांतली कथा ही मूळ वैदिक रुपक कथेचे ऐतिहासिक अलंकारिक रुपांतर आहे.

पुराणांतली कथा आम्ही इथे सांगत बसत नाही ती सर्वांस परिचित आहे. तेंव्हा ही कथा मूळची ऋग्वेदांतली पहिल्या मंडलातली २२ व्या १५४ व्या सूक्तांमधील ऋचेंवरून घेतली आहे, ज्यात तो सूर्य अर्थात विष्णु ह्या तीन गोष्टींना आपल्या तीन पाऊलांत व्यापतो. ज्यात ही तीन पाऊले म्हणजे दिवसाचे तीन सकाळ, सायंकाळ रात्र असे तीन भाग किंवा विश्वाचे पृथ्वी, आकाश पाताळ असे तीन भाग ह्या अर्थाने आहे. ही सूर्यकिकरणांनी व्यापिलेल्या ह्या तीन भागांची रुपक कथा ऋग्वेदामध्ये आहे. ह्या तीन पाऊलांत तो सूर्य अर्थात विष्णु सर्व विश्व व्यापितो. ते मूळ पाच मंत्र पाहुयांत.

अतो॑ दे॒वा अ॑वंतु नो॒ यतो॒ विष्णु॑र्विचक्र॒मे  पृ॒थि॒व्याः स॒प्त धाम॑भिः १६
इ॒दं विष्णु॒र्वि च॑क्रमे त्रे॒धा नि द॑धे प॒दं  समू॑ळ्हमस्य पांसु॒रे १७
त्रीणि॑ प॒दा वि च॑क्रमे॒ विष्णु॑र्गो॒पा अदा॑भ्यः  अतो॒ धर्मा॑णि धा॒रय॑न् १८
विष्णोः॒ कर्मा॑णि पश्यत॒ यतो॑ व्र॒तानि॑ पस्प॒शे  इंद्र॑स्य॒ युज्यः॒ सखा॑ १९
तद्विष्णोः॑ पर॒मं प॒दं सदा॑ पश्यंति सू॒रयः॑  दि॒वी॑व॒ चक्षु॒रात॑तं २०
तद्विप्रा॑सो विप॒न्यवो॑ जागृ॒वांसः॒ समिं॑धते विष्णो॒र्यत्प॑र॒मं प॒दं २१

ह्या पाचही मंत्रांचा अर्थ सायण नावाच्या भाष्यकारानुसार सांगायचा तर विष्णूने अर्थात सूर्याने ह्या संसारास तीन पाऊलांनी व्यापिलं आहे. इथे सायणाचार्यांचे भाष्य आपण अभ्यासले तर इथे अकारण वामनावताराची मनगढन्त कल्पना केली आहे. वेदांमध्ये कोणत्याही अवताराची कथा नाहीये. पण पुराणांमध्ये ती आलीय. 
आता १५४ वं पूर्ण सूक्त पाहुयांत.
विष्णो॒र्नु कं॑ वी॒र्या॑णि॒ प्र वो॑चं॒ यः पार्थि॑वानि विम॒मे रजां॑सि  यो अस्क॑भाय॒दुत्त॑रं स॒धस्थं॑ विचक्रमा॒णस्त्रे॒धोरु॑गा॒यः
प्र तद्विष्णुः॑ स्तवते वी॒र्ये॑ण मृ॒गो भी॒मः कु॑च॒रो गि॑रि॒ष्ठाः  यस्यो॒रुषु॑ त्रि॒षु वि॒क्रम॑णेष्वधिक्षि॒यंति॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑
प्र विष्ण॑वे शू॒षमे॑तु॒ मन्म॑ गिरि॒क्षित॑ उरुगा॒याय॒ वृष्णे॑   इ॒दं दी॒र्घं प्रय॑तं स॒धस्थ॒मेको॑ विम॒मे त्रि॒भिरित्प॒देभिः॑
यस्य॒ त्री पू॒र्णा मधु॑ना प॒दान्यक्षी॑यमाणा स्व॒धया॒ मदं॑ति   उ॑ त्रि॒धातु॑ पृथि॒वीमु॒त द्यामेको॑ दा॒धार॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑
तद॑स्य प्रि॒यम॒भि पाथो॑ अश्यां॒ नरो॒ यत्र॑ देव॒यवो॒ मदं॑ति । उ॒रु॒क्र॒मस्य॒ हि बंधु॑रि॒त्था विष्णोः॑ प॒दे प॑र॒मे मध्व॒ उत्सः॑
ता वां॒ वास्तू॑न्युश्मसि॒ गम॑ध्यै॒ यत्र॒ गावो॒ भूरि॑शृंगा अ॒यासः॑ अत्राह॒ तदु॑रुगा॒यस्य॒ वृष्णः॑ पर॒मं प॒दमव॑ भाति॒ भूरि॑
ह्या सूक्ताचा संक्षेपांत अर्थ पहायचा म्हटला तर मी त्या विष्णूचे अर्थात सूर्याचे वर्णन करतो ज्याने तीन पाऊलांत समग्र विश्व व्यापिले आहे आकाशांस स्थिर केले आहे. ज्याने पृथ्वी, द्युलोक समस्त भूवनांस धारण करून ठेवलेलं आहे, ज्याने निर्माण केलेल्या औषधी, अन्नादिंनी मनुष्याचे पोषण होते, त्यांस मी वंदन करतो.

इथे विष्णु म्हणजे दुसरे कुणीही नसून तो सूर्य ह्या अर्थाने आहे. सूर्य तीन पाऊलांनी तीन भूवने व्यापितो ह्याचाच अर्थ विष्णूची तीन पाऊले आहेत.

आश्चर्य म्हणा किंवा शोकांतिका म्हणा

ह्या संपूर्ण मंत्रांमध्येच काय पण चारीही वेदांमध्ये कुठेही बलीचा साधा किंवा पुसटसा उल्लेखही नाहीये. नाही म्हणजे ना आणि ही. तरीही पुराणांनी ही मनगढन्त कथा का रचली त्यासाठी व्यासांचा नावाचा बळी अकारण का दिला हेच कळत नाहीये. असो त्यावर कधीतरी सविस्तर भाष्य करुच.

ऋग्वेदांतले आणखी काही मंत्र जिथे जिथे ह्या तीन पाऊलांच्या विष्णु म्हणजे सूर्याच्या तीन पाऊलांच्या कथेचा वामनावताराशी वरवरपाहता अर्थ प्रतिध्वनित होतोय असा भ्रम होतो. ऋग्वेद .११५.,.४९.१३,.१००.४८.१२.२७ ह्या सर्वांत अन्यत्र "उरुगाय", " विचक्रमे", उरुक्रम:, मिमान:,  रजसो विमान:, पार्थिवानि विममे आदि मंत्रांमध्ये देखील हेच विष्णुच्या त्रिपाद विक्रमाचे संदर्भ आहेत. अन्य तीन वेदांतले मंत्रही ह्याच प्रकारचे असून तिथेही विष्णुच्या अर्थात सूर्याच्या किंवा परमेश्वराच्या त्रिपाद विक्रमाचे वर्णन आहे. विस्तारभयास्तव ते वर्णित नाही.

आता भाष्यकारांचे अर्थ पाहुयांत.

स्कंदस्वामी नावाचे ऋग्वेदांवरचे सर्वात प्रथम भाष्यकार ह्याचा मुख्यत: इतिहासपरक गौणत: सूर्यपरक असा दोन्ही अर्थ करतात. इतिहासपरक अर्थ करताना ते  सप्तधाम अर्थात पृथ्वीचे सात द्वीप असा अर्थ करतात. .२७.२० ह्या मंत्राचा अर्थ प्रकट करताना स्कंदस्वामी सूर्यपरक अर्थ करतात त्यात विष्णु हा सूर्य असून जो प्रत्यही विक्रमण करतो उदय, मध्यान्ह अस्त ही त्याची तीन पाऊले आहेत असा रुपक अर्थ प्रकट करतात. ते तीन लोकांची आणखी कल्पना करताना अग्नीरुप पृथ्वीस, विद्युतरुप अंतरिक्षांस सूर्यरुप द्युलोकांस व्यापतो असे रुपक करतात. यजुर्वेदभाष्यकार उव्वट महीधर हे वामनावतारच मानतात. 
वेंकटमाधव हे भाष्यकार ह्या मंत्रांचा अध्यात्मपरक सूर्यपरक अर्थ करतात. त्यांच्या मते विष्णु हे परमपद यज्ञ असून सप्तछंद हे सप्त धाम आहेत, मनुष्यांच्या  कर्मांचे बंधन हे ह्या विष्णूचे खरे कर्म आहे. सूर्यपरक अर्थामध्ये ते विष्णूंस इंद्राचा नियोज्य सखा आकाशांत पसरलेले तेज हे परमपद असा अर्थ घेतात.
मुद्गल नावाचे भाष्यकार ह्याचा अध्यात्मपरक अर्थ करताना ईश्वरांस जगताचा पालक, रक्षक सांगतात. त्रेधा ह्या शब्दांवरून ईश्वर हा कर्ता, धर्ता संहर्ता रुपांत आहे हे सांगतात. गायत्र्यादि सात छंद हे सप्तधाम आहेत असा अर्थ ते करतात.

जिज्ञासूंनी ह्या तीन्ही भाष्यकारांचे भाष्य निम्नलिखित संकेतस्थलांवरून संग्राह्य करून प्राप्त करावे. करावे. https://archive.org/details/RigVeda31 इथे ते प्राप्त होईल.



वेदहर्षी श्रीमत्स्वामी दयानंदांचा अर्थ 

वेदांवरचे  षड्वेदांगाना अनुकूल असे आजपर्यंतचे सर्वोत्तम भाष्यकार वेदादिधर्मशास्त्राविषयीच्या अनेक भ्रांतींचे निवारण करणारे वेदोद्धारक ऋषिश्रेष्ठ, ज्यांची पुण्यतिथी कालच अमावस्येंस झाली, ते आपल्या ऋग्वेद भाष्यामध्ये उपरोक्त मंत्रांचा अर्थ अध्यात्मिक करतात विष्णुंस संसारांत व्याप्त असण्याने निराकार परमेश्वराचे द्योतक मानतात. ते "त्रेधा निदधे पदम्" ह्या "विष्णुुपद" ह्याचा संबंध सृष्टीरचनेच्या संदर्भात लावताना परमेश्वर आपल्या पायांनी अर्थात प्रकृती, परमाणु आदि सामर्थ्याच्या अंशाने सर्व जगांस तीन स्थानांमध्ये धारण करतो असा व्यापक अर्थ करतात. 

निरुक्तकार यास्कांचा अर्थ 

षड्वेदांगापैकी एक प्रमुख अशा निरुक्तामध्ये विष्णुपद ह्या विषयांवर यास्कमूनीसुद्धा परमेश्वराने सृष्टी बनविताना तीन प्रकारची रचना दाखवितात असा अध्यात्मपरक अर्थच केला आहे. 

वेदमहर्षी श्रीपाद दामोदर सातवळेकर सुद्धा ह्या मंत्रांचा परमात्मपरक अर्थच लावताना परमात्मा सप्तधामांमध्ये अर्थात पृथ्वी, आप, तेज, वायु, आकाश, तन्मात्रा, महत्तत्व ह्या सात तत्वांत व्याप्त होऊन पराक्रम दर्शवितो असा अर्थ प्रकट करतात. सात्विक, राजस तामस ह्या तीन भेदांनी क्रमश: द्युलोक, अंतरिक्ष भूलोक हे तीन पाद अर्थात पाय आहेत असा अर्थ करतात. 

जयदेव शर्मा विद्यालंकार ह्यांनी देखील परमात्मपरक अर्थच केला आहे. जास्ती कशाला अहो परकीय अशा पाश्चात्य भाष्यकार मैक्सम्युलर, मैक्डौनेल, कीथ, ग्रिफीथ हे देखील विष्णूंस सूर्य मानूनच अर्थ प्रकट करताना आपल्याला दिसतात.


मग हे वामनाचे स्वरुप आले कुठून???

तर तैत्तिरीय संहितेमधून ..३१ येथून. ह्यानंतरच सर्व परवर्ती भाष्यकारांनी ह्याचा अर्थ अकारण वामनावताराची जोडला आहे.  अर्थात पुराणांनी अकारण बळीला मध्येच घुसडले आहे जे ह्या आधीच्या उपरोक्त ग्रंथांत कुठेही उल्लेखिलेले नाहीये.


वेदांवरचे व्याख्यानरुपी असे ब्राह्मणग्रंथांतील वर्णन

शतपथ ब्राह्मण ह्या ग्रंथामध्ये ह्याचा अर्थही विस्ताराने वर्णिताना विशुद्ध असा यज्ञपरक केला असून विष्णु हे यज्ञाचे स्वरुप असून यज्ञीय देवता असाही केला आहे. "वामनो हि विष्णुरास:" असे ... येथे शतपथामध्ये म्हटले आहे. "यो वै विष्णु: यज्ञ:" (...) येथे "विष्णुर्वैयज्ञ:" असे ऐतरेय, तांड्य, तैत्तिरीय ब्राह्मण गोपथ ब्राह्मणामध्येही म्हटलेलं आहे. 

निरुक्तामध्ये विष्णु शब्दाचा अर्थ पदार्थांमध्ये व्याप्त प्रविष्ट गुण अशा अर्थाने आहे. त्याची व्युत्पत्ती निम्नलिखित आहे.

विष्लृ- व्याप्तौ, विश-प्रवेशने, वि पूर्वक अशूङ्-व्याप्तौ धातु पासून हा विष्णु शब्द सिद्ध होतो. निरुक्तावर भाष्यकरताना दुर्गाचार्य, ज्याचे "निरुक्ताचे मराठी भाषांतर" नावाने भाषांतर इतिहासाचार्य राजवाड्यांचे बंधु वैजनाथ काशिनाथ राजवाड्यांनी केलंय, जे पीडीएफ उपलब्धही आहे, त्यातही सूर्य हाच अर्थ दुर्गाचार्य करतात. भगवद्दत्त रिसर्च स्कौलर शिवनारायण शास्त्री हे निरुक्तभाष्यकारही हाच अर्थ घेतात. 

शौनकाच्या बृहद्देवतेमध्ये सूर्याच्या नावांची व्युत्पत्ती सांगताना 
विष्णातेर्विशतेर्वा स्याद् वेवेष्टेर्व्याप्तिकर्मण: !
विष्णुर्निरुच्यते सूर्य: सर्वं सर्वान्तरश्च : !
.६९
अर्थ - विष्णु हा शब्द व्यापणारा ह्या अर्थाने विष्णूची त्या सूर्यस्वरुपांत व्याख्या केलीय जो सर्व काही सर्वव्याप्त आहे.

उपनिषदांमध्येही व्यापक परमात्मा असा अध्यात्मपरकच अर्थ आहेकाठक संहिता /, मैत्रायणी .२६, .१६, ., तैत्तिरीय .. येथेही हेच वर्णन आहे. म्हणजे उपनिषदे देखील हाच व्यापक अर्थ प्रकट करतात.


आता लौकिक साहित्यातला अवतारपरक अर्थ कुठे कुठे आहे ते पाहुयांत.

रामायणामध्ये, महाभारतामध्ये तीन वेळा, पुराणांमध्ये तर अतिरंजित असा आहे. अर्थातच तो प्रक्षेप आहे हे सिद्ध आहे. विस्तारभयास्तव आम्ही ते सर्व संदर्भ देऊ शकत नाही. जिज्ञासूंनी ते पहावेत. क्षमा. 

ह्या सर्वांच्या विवेचनाचा निष्कर्ष काय????

ऋग्वेदामध्ये कुठेही विष्णुसाठी वामन शब्दाचा प्रयोग नाहीये बळीचे नावही नाहीये ! आम्ही वरही सांगितलंय की बली हा शब्दही चारी वेदांच्या संहितांमध्ये नाही म्हणजे नाहीच. 

वैदिक साहित्यापासून पौराणिक साहित्यापर्यंत ह्या आख्यानाचे अर्थ किती बदललेले आहेत उत्तरोत्तर ते किती विकृत होत गेले आहेत हे आपल्या लक्षात येईल. त्यामुळेच वैदिक मंत्रावरून जे तसा अवतारपरक ऐतिहासिक अर्थ काढण्याचा प्रयत्न करतात ते सर्व लोक चूकीच्या दिशेवर आहेत हे सांगण्यांस कोणताही प्रत्यवाय नाहीये. 

वामन हे नाव त्याच्या रुपाची प्रेरणा कल्पना तैत्तिरीय संहिता ब्राह्मणग्रंथ, जे वेदांवरची व्याख्यानरुपी ग्रंथ आहेत हे आम्ही अनेकवेळा सांगत आलोय, त्या ब्राह्मणग्रंथांमध्येदेखील हे सर्व वर्णन केवळ आख्यानस्वरुपाने आलंय. कारण ब्राह्मणग्रंथांची शैली ही मूळातच आख्यानात्मक रुपकात्मक आहे. ती अलंकारिक आहेत्यामुळे त्यामध्ये ह्या वर्णनांत ऐतिहासिक पक्ष सिद्ध होत नाहीच नाही. आमच्या आधीच्या आचार्य शंकराचार्यांच्या लेखातही आम्ही वेदांमध्ये नित्यपक्ष सिद्ध केला आहे.



आर्याक्रमण सिद्धांत सप्रमाण खोडणार्या एका मुख्यमंत्र्यांच्या ग्रंथांचा संदर्भ


डॉ. संपूर्णानंद हे नाव अनेकांनी ऐकलं असेल. ते उत्तरप्रदेशचे मुख्यमंत्री होते. अतिशय विद्वान मनुष्य ! त्यांनी
यह आर्योंका आदि देश है 
नावाने जो ग्रंथ लिहिलाय, त्यात पृष्ठ क्रमांक २०३ वर वैदिक आख्यान मांडताना ह्या कथेवर भाष्य करताना
सूर्य का पहिय्या विष्णु के तीन पाद ह्या शीर्षकाखाली ही पूर्ण वेदांतली कथा कशी रुपक कथा आहे पुराणांनी अकारण त्याचे कसे ऐतिहासिक रुपांतर करून विपर्यांस केलाय हे सविस्तर लिहिलं आहे. तो ग्रंथ पीडीएफ उपलब्धही आहे. जिज्ञासूंनी तो वाचावा ही विनंती.


अंतिम निष्कर्ष 

पूर्वोक्त आख्यान हे दोन स्वरुपांत आपणांस पाहता येईल.
. प्रकृतीपरक अर्थात सूर्याच्या स्वरुपांत
. रुपक अलंकांरिक अर्थात परमात्मस्वरुपामध्ये

. ह्यात प्रकृतीपरक अर्थ घेणार्यांमध्ये निम्नलिखित भाष्यकार आणखी सांगता येतील.
अधिकांश भारतीय तथा पाश्चात्य भाष्यकार जसे यास्कमूनी, शाकपूणि, और्णवाभ, मेधातिथी, शौनक, स्कंदस्वामी, वेेंकटमाधव, लोकमान्य टिळक, मैक्सम्युलर, मैक्डोनल, कीथ, ग्रिफीथ, बेर्गेन, !
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्ण त्यांच्या "इंडियन फिलॉसॉफी"ह्या अभ्यासपूर्ण ग्रंथामध्ये ४९५ पृष्ठांवर सूर्यच अर्थ घेतात. डॉ. बलदेव उपाध्याय त्यांच्या "वैदिक साहित्य  और संस्कृती" ह्या ग्रंथामध्येही सूर्यच अर्थ घेतात. डॉ. एस एन दासगुप्ता देखील आदित्य असाच अर्थ घेतात (दि हिस्टरी एफ इंडियन फिलॉसौफी भाग द्वितीय, पृष्ठ ५३५). डॉ. रामचंद्र मजुमदार हे नामवंत इतिहासकारही सूर्याचेच प्रतीक असा अर्थ घेतात. 

. अध्यात्मपरक अर्थात परमात्मवाचक अर्थामध्ये महर्षि दयानंद, मुद्गल, जयदेव शर्मा विद्यालंकार, सातवळेकर, महर्षी अरविंदसुद्धा. 


मग आता पुराणांमधल्या वामनावताराच्या कथेचं काय???

तर ही कथा रुपक अर्थाने आहे हे स्पष्ट होत असून त्यात झालेली अत्युक्ती ही त्याज्य असून जरी ती स्वीकारायची म्हटली तरी ती ऐतिहासिक अर्थाने घेता अध्यात्मपरक रुपक अर्थाने घ्यावी हीच विनंती ! 

शेवटचे 

ज्या ब्रेकिंग इंडिया फोर्सेसना ह्यात ब्राह्मण विरुद्ध ब्राह्मणेतर, आर्य विरुद्ध अनार्य, बहुजन वगैरे भिकार नि टुकार वाद रंगवायचे असतील त्यांनी ते खुशाल रंगवावेत द्वेष पसरवत राहावा. एरवी सर्व पुराणे, रामायणं महाभारत वगैरे तुम्हाला थोतांड असतं, काल्पनिक असतं. पण ह्याच तुमच्या कल्पनेतल्या कथांचा उपयोग स्वत:च्या विकृत मानसिकतेसाठी वारपण्याची धंदेवाईक कला तुम्हांसच यावी हो. कारण तुम्हाला तसेही काही काम आहेच कुठे??? समाज जोडायचा का की तो तोडायचा हे ठरविण्यांस वाचक सूज्ञ जिज्ञासू आहेत. जास्ती काही लिहित नाही.


तुका म्हणे सत्य सांगे, येवोत रागे येतील ते 
गुण अवगुण निवाडा, म्हैस म्हैस रेडा रेडा !
हा तो निवाड्याचा ठाव, खर्या खोट्या निवडी भाव !
अंगे उणे त्याचे बसे टाळक्यांत, काय करु म्हणे आम्ही धक्का खवंदासि लागतसे !
जगद्गुरु तुकोबाराय

अलमतिविस्तरेण बुद्धिमद्वर्य्येषु !

तुकाराम चिंचणीकर
पाखण्ड खण्डिणी
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