गत कई वर्षोंसे मुख्यरुपसे वैदिक साहित्यका अध्ययन मूलतः संस्कृत एवं हिंदीभाषामें सौभाग्यप्राप्त विषय रहा है। एक समय था मातृभाषा मराठी होनेके कारण जिसकालमें पुणेके सिम्बायोसिस कला एवं वाणिज्य महाविद्यालयमें प्रवेश पश्चात् महाविद्यालयीन अमराठी सहाध्यायीयोंसह हिंदीमें वार्तालाप करनें हम कठिनाईयाँ अनुभव करतें थे। सौभाग्यसे चन्द्रप्रकाश द्विवेदीजीकी चाणक्य नामक धारावाहिकका अवलोकन प्राप्त हुआ उस समयसे हिंदी भाषाके प्रति रुचि निर्माण एवं वृद्धिंगत हुई। हम ऋणी है उस ऋषिश्रेष्ठ यतिवर महर्षि दयानन्द के एवं उनसे स्थापित आर्यसमाज एवं उनके विद्वानोंके जिन्होनें हिन्दीभाषा को पाश्चात्य भाषाओंसे मुक्त कर संस्कृतनिष्ठ मूलस्वरुपता प्रदान करनेका महत्कार्य किया।
आर्यसमाज का हिंदी भाषाको योगदान यह एक स्वतन्त्र विषय है जिसपर किसी एक विदुषीने आचार्यपदप्राप्त हेतु प्रबन्ध का निर्माण किया है। विस्तारसे इस विषयपर भविष्यमें यदि संभव हो तो लेखन करेंगे। *स्वयं स्वातन्त्र्यवीर सावरकरजीने महर्षि के कार्य का गौरव* करते समय लिखा है की
"महर्षि दयानन्द द्वारा लिखित सत्यार्थ प्रकाश में जिस हिन्दी के दर्शन हमें प्राप्त हैं, वहीं हिन्दी हमें स्वीकार है। यह सरल, अनावश्यक विदेशी शब्दों से अलिप्त होकर भी अत्यन्त अर्थ वाहक तथा प्रवाही है। महर्षि दयानन्द ही सर्वप्रथम नेता थे, जिन्होंने 'हिन्दुस्तान के अखिल हिन्दुओं की राष्ट्र भाषा हिन्दी है ऐसा उद्घोष व प्रयास किया था."
(सन्दर्भ-वीर वाणी पृष्ठ ६४)
इसका प्रत्यय महर्षीकें ग्रन्थोंका अध्ययन करनेपश्चात् सहजतासे प्राप्त है। उनके पश्चात भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महावीरप्रसाद द्विवेदी, जयशंकरप्रसाद, सुमित्रानन्दन पन्त आदि विद्वानोंको हिन्दी भाषा के विकास एवं वृद्धिकें विषयमें अधिकारी कहना आवश्यक है ।
यहाँ यह कह देना कोई अत्युक्ती नहीं होगी प्रथम वार हम महर्षीके एवं सावरकरजीके कथन से असहमती प्रकट करते है । हम तो संस्कृतभाषा कोही राष्ट्रभाषा का सम्मान प्राप्त करना इच्छुक है, नाकी हिन्दी अथवा अन्य कोई भाषाको । अस्तु वह स्वतन्त्र विषय है । संस्कृतही राष्ट्रभाषा होना आवश्यक है यह डॉ. भीमराव अम्बेडकरजीका भी मन्तव्य था ।
हिन्दी का स्वरुप एवं विकास
पण्डित भगवद्दत्त, रिसर्च स्कॉलर, बीए, उनके "भाषा का इतिहास" इस अभ्यासपूर्ण ग्रन्थमें यह प्रतिपादन करते है की हिन्दीभाषा के ६५% शब्द मूलरुपसे साक्षात संस्कृत अथवा उसके अपभ्रंश रुपसे है। इसकी लिपी देवनागरी जिसमें ५२ अक्षर है, जिसमें १४ स्वर एवं ३८ व्यञ्जन है। गुरु ग्रन्थसाहिब में इस भाषा का नाम बावनी ऐसा लिखा है, हिन्दी नाम पश्चात् का है। इसमें संस्कृत के स्वर स्पष्टरुपसे दर्शित होते है इस कारण हिन्दी का संस्कृतसे घनिष्ट सम्बन्ध स्पष्ट है। यद्यपि हिन्दी भाषापर सबसे अधिक प्रभाव संस्कृत का है तथापि प्राकृत, अपभ्रंश, अवधी, ब्रज, फारसी, तुर्की, अरबी आदि भाषायोंकाभी है। विक्रम संवत १००० से इस भाषा का विनियोग होता आ रहा है। विक्रम संवत १२०० सें इसके साहित्यिक भाषा के प्रमाण प्राप्त होते है। गत दो शताब्दीयोमें इस भाषामें उत्तम परिमार्जन हुआ जिसका श्रेय उपरोक्त विद्वानोंको जाता है।
प्रयास तो यह होना आवश्यक है की हिन्दीभाषामें हुए इन विदेशी एवं भ्रष्ट भाषाओंके आक्रमण को नष्ट कर हिन्दी भाषामें अधिकतम् अधिक संस्कृतोद्भव शब्दोंकाही प्रयोग किया जाएँ। संस्कृतनिष्ठ हिन्दीकाही प्रचार एवं प्रसार हो।
आज हिन्दीभाषा दिन के उपलक्ष्यमें हम यह दृढ संकल्प करेें की इस भाषा को पुन: उसका गौरव प्रदान करें तथा स्वयं इस भाषा कें संरक्षणमें कृतबद्ध होवें।
हिंदीभाषा भारतवर्ष की सर्वाधिक जनसंख्याकी भाषा होनेके कारण एवं उसका अस्मद् मराठीभाषा के प्रति सहसम्बन्ध के कारण हिंदीभाषामें संवाद करना तथा लेखन करना सौभाग्य का विषय है। जितना संभव हो विशुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिंदी का आग्रहही श्रेय है। इसहेतु संस्कृतभाषा का अध्ययनभी हिंदीसह आवश्यक है।
हिंदीभाषा दिनके उपलक्ष्यमें इस राष्ट्रकी सांस्कृतिक एकात्मताहेतु इस भाषा को परकीय भाषाओसें मुक्त करनेका संकल्प हम करें।सांप्रत आङ्ग्ल भाषाके प्रति हो रहा अनाठायी अट्टाहास भारतीय भाषाओंके ह्रास का प्रमुख कारण है। यद्यपि आङ्ग्लभाषाका अध्ययन आवश्यक है, तथापि स्वकीय मातृभाषा एवं संस्कृत तथा तज्जन्य भारतीय भाषाओंके संरक्षण, संवर्धन तथा प्रचार-प्रसार का दायित्व एक भारतीय होनेके कारण प्रत्येक व्यक्तीकें स्कन्धोंपर है।
राष्ट्रीय एकात्मता दृढ करनेहेतु हम संकल्पबद्ध होवें।
भविष्यकालमें इस भाषा की सेवा करनेकी सन्धि ईश्वर हमें प्रदान करें यह प्रार्थना है।
आप सर्व भारतीयोंको हिंदी भाषा दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
भवदीय,
पाखण्ड खण्डिणी
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