Thursday, 30 August 2018

वेदविषय - शंका समाधान - लेखांक प्रथम


यह लेखमाला का प्रथम भाग है । इसके अग्र पाच और प्रश्न एवं उनका समाधान ऐसे लेख आयेंगे ।

*प्रश्न* - यदि वेद ईश्वरीय ज्ञान है और आदिमें चार ऋषियोंको उनकें आत्मामें दिया है तो कुछ प्रश्न है । सृष्टि का प्रथम दिन ।

*समाधान* - सर्वप्रथम तो यह आपको ज्ञान होना आवश्यक है कि वेदज्ञान ईश्वर का नित्यज्ञान है और यह मान्यना सर्व प्राचीन ऋषियों कि है, केवल महर्षि दयानन्द वा आर्य समाज की नहीं । वसिष्ठ-विश्वामित्र-वाल्मीकिसे जैमिनी पतंजलि पर्यंत सर्व ऋषि वेद को नित्यज्ञान कि संज्ञा देते है । जैसे ईश्वर नित्य है वैसे उसका ज्ञान जो वेदरुपी चतुर्संहिताओंमें शब्द बद्ध है, वहभी नित्य है । अब नित्य शब्द का अर्थ क्या है इसका समाधान आपको ऋषिकृत *ऋग्वेदादिभाष्यभूमिकामें* प्राप्त हो जायेगा । इसके उपर हम पश्चातमें संवाद करेंगे । ऋषीके मन्तव्यानुसार जो उनका निजी नहिं अपितु सर्व प्राचीन परम्परा प्राप्त ऋषियोंका है, उसके अनुसार वेद जीवसृष्ट्यारम्भमें प्रदत्त ईश्वरीय ज्ञान है । आपने सृृष्टिका प्रथम दिन ऐसा उल्लेख किया है । यहाँ आपको क्या अर्थ प्रतिपादित है यह आपहीं कथन कीजिये । सृष्टि निर्माण होके तो चार अब्ज बत्तीस कोटी वर्ष हो गये है । हाँ मानवसृष्टि के वर्ष जो नित्यसंकल्पमें हम गिनते है उतने हुए है । आप देख सकते है ।महर्षीने वेदोंका आविर्भाव काल मानवसृृष्टिकें आरम्भ का काल माना है जो उपरोक्त नित्यसंकल्पका काल है और उसमें ना कुछ हानीं है ना कुछ त्रुटिं है ।

आपकी शंका है की

१. *उस समय यदि भाषा नहीं थी तो ज्ञान दिया कैसे ?*

*समाधान* - किसी भी भाषा कें सिवाय ज्ञान हो हीं नहीं सकता । वेद तो वैदिक संस्कृत भाषामें है एवं देनवागरीं लिपीमें है जो उन ऋषियोंके अन्त:करणमें प्रकट हुए । इसका प्रमाणभी वेदमेंही है हमने दिया था कुछ मास पूर्व । पुन: देंगे । उस परमात्मानेंही प्रकाश किया उनका ।

वास्तवमें ज्ञान की परिभाषा क्या है ? आपको किसी भी वस्तु का ज्ञान होता है इसका अर्थ क्या है ? कोई माध्यम तो आवश्यक है ना,
जैसे यह आपके और मेरे हातमें भ्रमणभाष्य (मोबाईल) है यह कैसे ज्ञान हुआ ? किसीने उसको वह नाम दिया है उसके लक्षणोंसेंही हमनें उस वस्तुका ज्ञान प्राप्त किया ना ।

योगदर्शन में कहा है की

*स एष पूर्वेषामपि गुरु: कालेनानवच्छेदात् । १.२६*

वह ईश्वर सर्व गुरओंका गुरु है जो कभी कालसें बंधता नहीं ।

क्योंकि ज्ञान उसको कहते हैं कि जिससे ज्यों का त्यों जाना जाय। जब परमेश्वर अनन्त है तो उसको अनन्त ही जानना ज्ञान, उससे विरुद्ध अज्ञान और अनन्त को सान्त और सान्त को अनन्त जानना अज्ञान अर्थात् ‘भ्रम’ कहाता है।

 ‘यथार्थदर्शनं ज्ञानमिति’ (तुलना-भ० गी० 13.11.)

 जिसका जैसा गुण, कर्म, स्वभाव हो, उस पदार्थ को वैसा ही जानकर मानना ही ‘ज्ञान’ और ‘विज्ञान’ कहाता है और उससे उलटा ‘अज्ञान’ है। इसलियेः-

*क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः॥*

यो० सू० समाधिपाद-24

जो अविद्यादि क्लेश, कुशल, अकुशल, इष्ट, अनिष्ट और मिश्र फलदायक कर्मों की वासना से रहित है, वह सब जीवों से विशेष ‘ईश्वर’ कहाता है।

भाषा की उत्पत्ति एवं विकास के सन्दर्भमें भारतीय मनीषियोंने जो चिन्तन किया है वह वेद से सन्दर्भ स्थापित करता है । यद्यपि पश्चिमी चिन्तक आजपर्यंत इस विषयपर अंतिम निर्णय नहीं कर पाएं, तथापि इसपर उन्होनें प्रमुखता से चार सिद्धान्तोंका मंडन किया है । इस विषय पर पण्डित भगवद्दत्तजीका *भाषा का इतिहास* यह ग्रन्थ अवलोकन करें यह विनती है । वास्तवमें तो विकासवाद को माननेहारे पश्चिमी एवं उनके अनुकरण करनेहारे एतद्देशीय अन्धानुयायी आधुनिक विद्वान भाषा का विकास होता है यह जो तर्कहीन सिद्धान्त का मण्डन करते है वह तर्ककी कसौटी पर तो टिक ता ही नहीं ।

इनके दुर्भाग्यसे मैक्सम्युलर सहित एतद्देशीय कुछ प्रामाणिक विद्वानभी यहीं अनुप्राणित करते है की आदिभाषा एक ही थी, उसमें कालान्तरसें विकार होकर उसके अनेक रुपान्तर हो गयें ।स्वयं मैक्सम्युलरभी उसके *भाषाविज्ञान (सायन्स ओफ लैंग्वेज)* इस ग्रन्थमें लिखता है की

*We are more accustomed to all those changes in the growth of language, but it would be more appropriate to call this process of phonetic change a decay. On the whole, this history of all the Aryan Languages is nothing but a gradual process of decay.*

Page no. 51 and 272 - Volume I - Science of Language - Maxmullers

डार्विनका विकासवाद भाषा के सिद्धान्त पर तो पूर्ण रुपसे धराशायी होता है ।पण्डित रघुनन्दन शर्माजीने उसका समग्र विवरण वैदिक सम्पत्तिमें किया ही है, आप वहां देख सकते है ।

*Darwinism tested by the Science of Language*

इस ग्रन्थमें विकासवाद की भाषा के अध्ययन पर  धज्जियाँ उडायी गयीं है । डार्विनके विकासवाद को जर्मनी भाषा शास्त्रज्ञ श्लाईशरनेंभी इस ग्रन्थमें पूर्ण रुपसे खण्डित किया था । लंदनसे प्रकाशित यह ग्रंथ का आंग्लानुवाद १८५९ में हुआ था जिसमें डार्विनका भाषा का विकास होता है इसपक्ष की समीक्षा लेखकनें की है । वैदिक सिद्धान्त के अनुसार तो भाषा का ह्रास होता है, विकास नहीं ।

अब भाषा प्राप्त कैसे हुई ?

वैदिक सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्मा आदि ऋषियोनेंही (जी हाँ ऋषिही थे वे लोग) उनसे मनुष्य को वेदाश्रित भाषा प्रदान प्राप्त हुई । पौराणिक ग्रन्थोंमें उन्हे चार मुख वाला जो कहा जाता है वह गप्प है । इसका खण्डन स्वयं श्वेताश्वेतरोपनिद करता है । अस्तु ।

भाषा का इतिहास यह सिद्ध करता है की जिस किसी भी भाषा को सर्व भाषाओंका मूल मानना होगा, वह समृद्धही होनी आवश्यक है । यह विकासवाद के सर्वथा विपरित है । जिसको हम अन्त:प्रेरणा अथवा Revealation कहते है, उसकी आवश्यकता हैही जीवनमें । क्योंकि केवल ईश्वर को स्वाभाविकी ज्ञान होता है, मनुष्य को नहीं। आदिकालमें उस परमात्मानें चार ऋषियोंके अन्त:करणमें वेद ज्ञान का प्रकाश करना आवश्यक ही है ।

क्यौंकि कोई भी व्यक्ति अथवा मनुष्य ज्ञान स्वयं नहीं प्राप्त कर सकता है । यदि ऐसा होता तो हम पाठशालामें जाकर शिक्षा क्यौं प्राप्त करतें ? जन्मसेंही हमें ज्ञान क्यौं नहीं होता ?

कहाँ गये विकासवादी ? है कोई उत्तर ? सो शिक्षा की आवश्यकता तो हैही । इस हम नकारही नहीं सकते ।मैक्सम्युलर स्वयं लिखता है उपरोक्त ग्रन्थमें स्वयं देखिए

*If there is God who has created heaven and Earth, it will be unjust on His part, if He deprived millions of Souls born before moses of His Divine Knowledge. Reason and comparative study of religions declare that God gives His Divine Knowledge to Mankind from his first appearance on earth.*

एक ख्रिस्ती मिशनरी होकर भी वह सत्य को प्रकाशित करता है जो महर्षीनें भी प्रकाशित किया है ।

तुकाराम चिंचणीकर
पाखण्ड खण्डिणी
Pakhandkhandinee.blogspot.com

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Friday, 17 August 2018

अटलस्य पश्य॒ काव्यं॒ न म॑मार॒ न जी॑र्यति । - लेखांक - प्रथम






अथर्ववेदामध्ये एक मंत्र आहे.

*ॐ अन्ति॒ सन्तं॒ न ज॑हा॒त्यन्ति॒ सन्तं॒ न प॑श्यति । दे॒वस्य॑ पश्य॒ काव्यं॒ न म॑मार॒ न जी॑र्यति ॥*

अथर्ववेद - १०.८.३२

*त्या देवाचे काव्य पहा जे कधीच जीर्ण होत नाही किंवा मरतही नाही. नाश पावत नाही.*

कैवल्यसाम्राज्य चक्रवर्ती संतश्रेष्ठ श्रीज्ञानोबारायांनी कवित्वाची लक्षणे सांगताना

*वाचे बरवें कवित्व ।*
*कवित्वीं बरवें रसिकत्व ।*
*रसिकत्वीं परतत्व ।*
*स्पर्श जैसा ।*

ज्ञानेश्वरी - १८-३४७

असे लिहिलंय.

आदरणीय श्री अटलजींच्या काव्यप्रतिभेचे चिंतन करताना ह्या उपरोक्त वचनांचा आधार घेण्याचा मोह टाळता येत नाही.

अगदी स्पष्टच आरंभी सांगायचे तर मला काव्यातलं क'ही कळत नाही. पण तरीही सिंबायोसिस महाविद्यालयांत असताना २००८ मध्ये आदरणीय अटलजींच्या *मेरी इक्यावन कविताएँ* हा काव्यसंग्रह वाचनांत आला. माझं भाग्य हे की आदरणीय अटलजी पंढरीत पंतप्रधान म्हणून आले असताना त्यांना पाहण्याचं भाग्य लाभलं. मी अगदी लहानच अकरा बारा वर्षांचाच होतो. लाडक्या पंतप्रधानाला समोर पाहणं हे खचितच स्वप्नपूर्तीचे लक्षण होतं. त्यावेळी अटलजींच्या कविता फारशा ज्ञातही नव्हत्या. पण पुढे सिंबायोसिस मध्ये त्या वाचल्या.

*अटलजींच्या वाणींस कवित्व, कवित्वांस रसिकत्व व रसिकत्वांस परतत्वाचा संस्पर्श होता. आणि हे परतत्व दुसरे आणखी काय असणार तर हे हिंदुराष्ट्रीयत्वच ! हे राष्ट्रीयत्वच त्यांचे कवित्व, रसिकत्व व परतत्व संस्पर्शत्व होतं.*


*अथ काव्यलक्षणम् ।*

आमच्या प्राचीन शास्त्रकारांनी काव्य शब्दाची मीमांसा करताना अनेक व्युत्पत्या दिल्या आहेत. *साहित्यशास्त्रकार श्री मम्मटाचार्यांनी*

*तददोषौ शब्दार्थौ सगुणौ ।*

अर्थ - *काव्यगुणसंपन्न निर्दोष शब्दरचना, शब्दसंहितारचना म्हणजे काव्य होय.*

तर *संतश्रेष्ठ श्रीज्ञानोबारायांनी* ज्ञानेश्वरीच्या आरंभी मंगलाचरणामध्ये वेदस्वरुप सांगताना अर्थात वेदांचे अपौरुषेयत्व सूचित करताना *काव्याचे लक्षण* ही ध्वनित केलंय. ते म्हणतात

*हे शब्दब्रह्म अशेष । तेचि मूर्ति सुवेष ।*
*जेथ वर्णवपु निर्दोष । मिरवत असे ।*

ह्यात निर्दोष शब्दरचना व लावण्याने नटलेली अर्थ शोभा हे काव्याचे प्रधान अंग सांगितलंय.

ह्याचेच पुढे चिंतन *रसगंगाधरकार श्रीजगन्नाथ पंडितांनी* करताना

*रमणीयार्थं प्रतिपादक: शब्द: काव्यम् ।*

अर्थ - *रमणीय अर्थ प्रतिपादन करणारी शब्द रचना म्हणजे काव्य होय.*

अटलजींच्या काव्यप्रतिभेचे चिंतन करताना *साहित्यदर्पणकार* आचार्य श्रीविश्वनाथाच्या *साहित्यसुधासिन्धु* ह्या ग्रंथाचे स्मरण होतं. तो लिहितो

*जायते परमानन्दो ब्रह्मानन्दो सहोदर: ।*
*यस्य श्रवणमात्रेण तद्वाक्यं काव्यं उच्चते ।*

*काव्य कशांस म्हणावं ? विश्वनाथ लिहितो की ज्याच्या श्रवणमात्रानेच ब्रह्मानंदासह त्याचा सहोदर परमानंदांसही आपण प्राप्त होतो, त्यांस काव्य म्हणावं.*


इथे अटलजींच्या व आम्हा रसिकांच्या दृष्टीनेही जो ब्रह्मानंद व त्याचा सहोदर परमानंद आहे, त्याचा *प्रतिपाद्य विषय हा साक्षात हे प्राणप्रिय हिंदुराष्ट्र, ही भारतमाता आहे.* अगदी सावरकरांच्या भाषेत

*तूंतेचीं अर्पिलीं नवी कविता रसाला ।*
*लेखाप्रति विषय तुंचि अनन्य जाहला ।*

इथे अटलजींच्या काव्याचा चिंतनाचा विषय वर सांगितल्याप्रमाणेच केवळ राष्ट्रच आहे. तोच एक अनन्य विषय आहे.

*काव्ये नवरसात्मक: ।*

काव्य हे रसात्मक आहे. हे रस नऊ आहेत असे वचन आहे. भरतमूनी मात्र त्याच्या नाट्यशास्त्रांत *अष्टौ नाट्ये रसास्मृता* अर्थात आठच रस मानतो. पण ह्यात एका *आणखी दोन रसांची भर आमच्या गुरुदेवांनी परमादरणीय श्री किसन महाराज साखरेंनी घातलेली आहे.* जिज्ञासूंनी त्यांचा *नवरसीं भरवीं सागरु* हा त्यांचा ग्रंथ वाचावा. असो. ह्या रसांचे चिंतन करताना गुरुदेव लिहितात की 

*हा रसभाव पूर्ण विदग्धवृत्तीनें अर्थात ह्रदयांस भिडून त्याचे विवक्षित परिणाम श्रोत्यांवर होतील, अशा शहाणपण लाभलेल्या चातुर्याने वर्णिलें आहेत ज्ञानोबारायांच्या साहित्यात.*



आदरणीय अटलजींच्या काव्यातही हे नऊरसांपैकी काही रस आपणांस दृष्टिपथांत येतातच. त्यांपैकीच काहींचे चिंतन इथे प्रस्तुत लेखमालेचा विषय आहे. प्रामुख्याने अटलजींच्या काव्यामध्ये वीर, करुण, अद्भूत, रौद्र, वात्सल्य व शांत रस येतात. ह्यातला वात्सल्य हा आविष्कार श्रीगुरुदेवांचाच आहे. असो.

येत्या लेखमालेंत ह्याचा काहीसा विचार करण्याचा आमचा हेतु आहे.

अगदी आरंभीच म्हटल्याप्रमाणे मला काव्यातलं क ही कळत नाहीच. तरीही गेली दीडच्या समीप दशक ह्या तरल प्रतिभेच्या नि कविमनाच्या अजातशत्रु राष्ट्रनेत्याचे हे काव्यचिंतन श्रवण करतो आहे. म्हणून माझ्या अल्पबुद्धिनुसार ह्या राष्ट्रपुरुषांस एक आदरांजली वाहण्याच्या हेतुने हा लेखनप्रपंच !

पुढील लेखांत भेटुच !

क्रमश: ।

भवदीय,

तुकाराम चिंचणीकर
पाखण्ड खण्डिणी
Pakhandkhandinee.blogspot.com

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